ग़ज़ल
एक बिन्दु आर का एक बिन्दु पार का
चाहते मिलन मगर रेख-पथ न प्यार का
प्यार का निबाह भी है मिज़ाज पर टिका
ठीक चल नहीं रहा हाल रोज़गार का
प्यार अब न वो रहा यार अब न वो रहा
क्या अजब कि है यही दर्द यार-यार का
धर्म, जाति, क्षेत्र भी एक गोत्र, भेस भी
मैं अलग विचार का वो अलग विचार का
जीतकर उछल रहे हारकर सिसक रहे
मूल्यवान खेलना कुछ न जीत-हार का
चीज़ भा गई मुझे ले गई दुकान तक
बढ़ गया दुकान पर दाम इश्तहार का
चार पल अगर मिलें प्यार के लिए हमें
तो ज़रूर मिल सके एक पल क़रार का
— केशव शरण