मोक्ष
शब्दों में ढलती है आत्मा
दूर तक यात्रा करती है
देखती है आग तो
धुआं बन जाती है
देखकर तितली
फूल बन जाती है
सागर के तट पर रुककर
पैर पखार लेती है
बादल संग मनुहार कर
मिट्टी मखमल करती है
वेद, पुराण के पन्नों को
चूम, सूरज का आचमन
करती है
मोक्ष की तलाश कहाँ उसको
सारी दुनिया घूमकर जिद्दी
फिर मुझमें आ जाती है…!
— सविता दास सवि