कविता

हम मुस्कुराने का बहाना ढूंढते हैं 

इतना भी न डराइए की,

हम डरना ही छोड़ दें।

हम उनमें से भी नहीं हैं,

जो डर से जीना ही छोड़ दें।

इंतहां लीजिए जरूर,

पर इतना भी न जनाब।

की परेशान होकर हम,

मुस्कुराना ही छोड़ दें।

हम भला डरेंग भी क्यों,

हम प्रेम की गली में रहते हैं।

डराना छोड़ भी दीजिए,

हम मुस्कुराने का बहाना ढूंढते हैं।

कभी धूप की डराए,

न कभी भौंरे डरते हैं।

फूलों पे बैठकर वो,

शौक से मकरंद चूसते हैं।

जो डर गए वो जीवन की,

खेल को नहीं समझते हैं।

जो समझ गए वो आसमां से,

ताड़े भी तोड़ लाते हैं।

— अमरेंद्र

अमरेन्द्र कुमार

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