संस्मरण

निश्छल आत्मीयता

7 अप्रैल 2024 को गोरखपुर एक साहित्यिक आयोजन में आमंत्रित किया गया था। स्वास्थ्य को लेकर बहुत आश्वस्त तो नहीं था। लेकिन माँ शारदे की ऐसी कृपा हुई कि उक्त तिथि से कूछ दिन पूर्व मैं अपने एक अग्रज सरीखे कवि मित्र (जिन्हें पहली बार मेरे माध्यम से मंच पर काव्य पाठ का अवसर मिला था, उसके बाद गोरखपुर के हर उस साहित्यिक आयोजन में शामिल होकर काव्य पाठ किया, जिसमें मैं भी पहुंच सका ) को अपने आगमन की संभावित सूचना देकर उक्त कार्यक्रम में आकर मिलने और आयोजन में शामिल होने का आग्रह किया। फिर तो जो कुछ हुआ, अप्रत्याशित ढंग से हुआ, वह अकल्पनीय था। पहले तो उन्होंने अपने नये चार पहिया वाहन लेने की जानकारी दी, फिर मुझसे कहा कि मैं चाहता हूं कि आप मेरे वाहन में कहीं यात्रा करें। मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि जब मैं वहां आऊंगा तब आप कहीं घुमा दीजिएगा। लेकिन उन्होंने मेरी बात काटते हुए कहा कि मैं आपको लेने आ जाऊंगा। फिर हम दोनो साथ साथ कार्यक्रम में शामिल होने आ जायेंगे। पहले तो मैंने आश्चर्य व्यक्त किया कि, गोरखपुर से बस्ती आकर मुझे अपने साथ ले जाना अनावश्यक परेशान होने जैसा है। फिर मेरी वापसी भी समस्या होगी। क्योंकि स्वास्थ्य कारणों से रेल या बस का सफर मेरे लिए संभव नहीं हो पा रहा है। उन्होंने मुझे आश्वस्त किया कि मैं आपको लेकर आऊंगा और वापस भी छोड़ दूंगा, शर्त इतनी है कि आपको मेरे घर तक चलना पड़ेगा, चाहे दो मिनट के लिए ही सही। क्योंकि इसके पूर्व भी एक बार नवंबर 2023 में उन्हें आश्वस्त करने के बाद भी समयाभाव के कारण मुझे उनका आग्रह क्षमा पूर्वक ठुकराना पड़ा था। और अंततः उन्होंने अपना वादा निभाया। गोरखपुर से बस्ती आये, परिवार को चिंतित न होने का भरोसा दिया और मुझे अपने साथ न केवल लेकर गए, गोरखपुर हमारी मुंहबोली बहन (कवयित्री, जिसे भी मैंने आयोजन में शामिल होने के लिए कह रखा था, वैसे भी अब तक गोरखपुर के जितने कवि सम्मेलन में वह शामिल हुई , मेरे साथ ही हुई ) को भी लेने न केवल उसके घर तक गये, बल्कि पूरे आयोजन में मेरा हर तरह से मेरे स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से हर समय पूरा ध्यान भी रखा। कार्यक्रम संपन्न होने के बाद हम तीनों पहले एक साहित्यिक संस्था के संस्थापक के घर गए, फिर एक अन्य विभूति (देश के प्रथम स्व. डा राजेन्द्र प्रसाद के प्रपौत्र) के घर एक वरिष्ठ कवि साहित्यकार, खिलाड़ी, मठाधीश के साथ गए, वहां से निकलते हुए लगभग 9 बज गए। चूंकि बहन की बिटिया घर में अकेली थी,तो बहन के साथ मुझे भी चिंता तो हो ही रही थी, लिहाजा वहां से हाँ न, हां न के बीच उनके घर भी गए, जहां बमुश्किल पांच मिनट ही हम सब रुके होंगे। इस समय तक लगभग 9.30 बज गए। बहन को घर छोड़कर निकलना चाह रहे थे। लेकिन उसके चेहरे की भाव भंगिमा से लगा कि उसे इस तरह यहां तक आकर बाहर से ही वापस होना अच्छा नहीं लग रहा था। चूंकि इसके पहले भी ऐसा हो चुका था, लिहाजा मुझे भी यह बहुत उचित नहीं लगा। फिर मित्र और ड्राइवर मुझे सहारा देकर किसी तरह उसके घर में ले गए। जलपान के बाद उसकी इच्छा थी हम लोग भोजन करके ही निकलें, लेकिन मुझे बस्ती छोड़ कर उन्हें वापस गोरखपुर लौटना भी था, इसलिए बहन के इस आग्रह को टालते हुए हम लोग लगभग 10.30 बजे वहां से निकले और रात्रि करीब 12.30 बजे हमें बस्ती में घर तक पहुंचाने के बाद वे वापस हुए और लगभग रात्रि 3.00 बजे गोरखपुर पहुंचे। इस तरह मेरी यह साहित्यिक यात्रा संपन्न हुई। आज भी जब पूरे घटनाक्रम को याद करता हूं तो सहसा विश्वास नहीं होता।पर कहते हैं न कि ईश्वर की व्यवस्था अविश्वसनीय ही होती है और उसकी मर्जी हो तो सब कुछ संभव है। जो भी हो, लेकिन मैं उनके इस आत्मीयता के प्रति नतमस्तक तो हूँ ही, इसे आत्मीयता की पराकाष्ठा भी मानता हूँ, क्योंकि दूसरे पक्षाघात के बाद वे मुझसे मिलने बस्ती ( जहां मेरा इलाज चल रहा है और पहले पक्षाघात के बाद प्रवास स्थल भी) पहले भी आ चुके हैं। ऐसे निश्छल व्यक्ति की निश्छलता के बारे में जितना भी कहूं, कम ही होगा।

*सुधीर श्रीवास्तव

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