लघुकथा

बाग खिला रहने दो

बड़े प्यार से रविंद्र और रंजन ने घर सजाया था। शानदार बाग भी।

रंगबिरंगे फूलों की क्यारियां घर-द्वार महकाती।

सुनहरी रविकिरणों से ओस बूंदे मोतियों- सी दमकती।

माली काका बाग की रखवाली करतें।

नन्हां दीप उनके साथ पौधों से बतियाता, कभी खेलता, कभी पानी देता।

दोनों मिल सुखे पत्ते, खर-पतवार निकालते।

 इठलाती तितलियां देख, दीप तितलियां पकडने की कोशिश करता।

माली काका रोकते उसे, और समझाते, 

“बेटा, नाजुक, कोमल होती है तितलियां।

उन्हें पकडा न करो।”

 “फूल न तोडो। फूल पौधों पर ही खिले रहते है।

प्रकृति का शृंगार हैं ये। हमारा ये बाग खिला रहने दो।”

माली काका की बातों से प्रभावित दीप अब हमेशा प्रकृति का सम्मान करता हैं।

अपने बाग के फूलों को देख पुलकित होता है। 

*चंचल जैन

मुलुंड,मुंबई ४०००७८