गीतिका/ग़ज़ल

मृदा शिल्पकार

खेतों से मृदा उठाते, रौंद–रौंद वे मिलाते हैं

अपनी हथेलियों से, चाक में बिठाते हैं।

वृत्ताकार घूम घूम,पहिए में झूम झूम,

सुंदर आकृतियों की, मटकी बनाते हैं।।

प्रातःकाल जल्दी जागे, नींद चैन सब त्यागे,

बैठ सभी बाजारों में, स्वेद वे बहाते हैं।

बढ़ती ऊष्मा में सारे, सिर्फ ईश के सहारे,

छोटी–छोटी झोपड़ी में, रात वे बिताते हैं।।

कभी धूप कभी छाया, सहती उनकी काया,

तृष्णा स्वयं त्याग सुख, लोगों को दिलाते हैं।।

एक–एक पैसा गिन, मेहनत रात दिन,

माटी में ही काम कर, माटी मिल जाते हैं।।

— प्रिया देवांगन “प्रियू”

प्रिया देवांगन "प्रियू"

पंडरिया जिला - कबीरधाम छत्तीसगढ़ [email protected]