वह बूढ़ी औरत
झुकी हुई कमर
कृशकाय, श्यामवर्णी
सन से सफेद बालों में
छोटा-सा गजरा लगाए
हाथों में हरी काँच की चूड़ियाँ
माथे पर बिंदिया
साड़ी लपेटे
पैरों में बड़ी हवाई चप्पलें
हाथ में पकड़े झाड़ू
हर शाम दुकान और बाहर
बुहारती है, तन्मयता से
नहीं देखती चारों ओर
केन्द्रित है ध्यान
फैले कूड़े की ओर
धीरे-धीरे करती है साफ़
धूल और कूड़े को
थक जाती है
थोड़ी देर सुस्ताती है
वह बूढ़ी औरत
पुनः लग जाती है
अपने लक्ष्य पर
एक भी तिनका नहीं होता उसके आस-पास
झाड़ देती है सारी नकारात्मता
किसी से कुछ नहीं कहती
कर्मक्षेत्र में मगन रहती
है श्रमशीला, कर्मठ
कर कर्मयोग का अनुसरण
स्वाभिमान, आत्मसम्मान
रखती सुरक्षित
उम्र के इस मोड़ पर
नहीं फैलाती हाथ
न ही दया-दृष्टि चाहती
पल-पल नहीं मरती
संघर्ष की राह चलती
होकर लाचार और बेबस
न ही इच्छामृत्यु का वरदान माँगती
हर शाम कर्म क्षेत्र में
योध्दा-सी जुत जाती
वह बूढ़ी औरत
झुकी हुई कमर लिए।
— डाॅ अनीता पंडा ‘अन्वी’