मुक्तक/दोहा

पिताजी के निधन पर

धूप में जलते हैं खुद और पाँव में छाले पड़े,
चलते रहें रात दिन, जितना भी चलना पड़े।
चिन्ता यही रहती है बस, परिवार खुशहाल हो,
बच्चों को रोटी मिले, चाहे भूखा खुद सोना पड़े।

रोते बहुत वह भी मगर, आँसू नजर आते नही,
भीतर से कोमल मगर, दर्द अपना कहते नही।
पी लेते हलाहल सारा, भोले शंकर की तरह,
थाम लेते वेग खुद पर, मुसीबतों से डरते नही।

जब तलक वह ज़िन्दा रहे, हम बच्चे बने रहे,
मुश्किलों के सामने वह, ढाल बनकर खड़े रहे।
बस एक ही पल में हम, फलक से धरा आ गिरे,
बेबस से लगने लगे, जो कल तक अकड़ अड़े रहे।

— डॉ. अ. कीर्तिवर्द्धन