नीलाभ
मन डुबना चाहता है पूर्णतः
जब-जब नीले रंग में
तब आकाश में फैला बादल
अति प्रिय लगता है
समंदर में उठते लहरों में
नील घुला सा लगता है
दूर उफ़ुक़ में नीली सी पट्टी
तैरती हुई प्रतीत होती है
इस नीलाभ की आभा भी
कितना सुकून देती है
तभी अचानक से नज़र पड़ती है
मौन, अपने आप में लीन
बैठे नीलाक्ष पर!
गहन पीड़ा में तर चेहरा
गरल की जलन
मुखमंडल को मलीन करती हुई,
निशा की वो पहर भी जब वह
विदा लेती है सहर होने से पहले
नीला सा मन धीरे-धीरे नीलाभ से
नीलाक्ष होता चला जाता है
— सपना चन्द्रा