कविता- बिकने वाले लोग
कितने में बिका तू
जरा अपना दाम बताना,
अब तेरा वजूद मिटा
फिर कैसा शर्माना,
बस मुल्यों का फर्क रहता
कोई चाय की कुल्हड़ में
कोई मयखाने में
कोई चंद नोटों में
कोई बड़े पैमाने पर,
हाँ हर कोई बिकता हैं
कहीं मीठे शब्दों के मोल,
कहीं बातें बड़ी झोल
कहीं दुनियां ही गोल,
हर कोई बिकने-बेचने वाला
फिर तू ईमान की दुहाई
देते फिर रहा हैं,
ईमानदारी की भीड़ में
बहरूपिया बनकर सब
अपनी नजरों से गिर रहा हैंl
— अभिषेक राज शर्मा