कविता

घर का मालिक हूं मैं

इस बड़े से घर का मालिक हूं मैं

लोगों को अक्सर ये वहम रहता है

सच तो ये है इक कमरे  वो रहते हैं

बाकी में उनका अहम रहता है।

छप्पन भोग सजाते है जो टेबल पर

लेकिन  परहेज के कारण थाली में

रोटी से ज्यादा तो होती है गोली

चीनी और नमक भी कम रहता है

पूछा हाल किसी ने भी जब उनका

 बहुत मजे में हैं  ही कहते हैं

जब गौर से देखा तो जाना 

उनकी आखों का कोना नम रहता है

वो  लोग बड़े हैं साहब

बात  अदब से करना  उनसे

कौन सी बात  मान वो बैठे बुरा

भेजा भी अक्सर उनका गरम रहता है

बिना बात के  हंसना और हंसाना

ये सब  छोटे लोग ही करते हैं

 मतलब पड़ने पर ही करते हैं वो बातें 

और लहजा भी  तभी नरम रहता है

गर वक्त बुरा आता है उनका

भगवान  को भी कर लेते हैं याद 

होती है पूजा पाठ  तभी घर में

दिल में उनके ईमान धरम रहता है।

— प्रज्ञा पांडेय मनु

प्रज्ञा पांडे

वापी़, गुजरात