हर रूप में सदैव अनूठी हो
ब्रह्माणी सृजन करती हो, जीवन की तुम ही बूटी हो।
माँ, बहन, पत्नी, प्रेमिका, हर रूप में सदैव अनूठी हो।।
सरस प्रेम की मूरत हो।
सदगुण निधि खुबसूरत हो।
ज्ञान की देवी, हो सरस्वती,
क्रोध में काली, भय पूरत हो।
आकषर्ण में सबको बाँधा, गृहस्थ धर्म की खूँटी हो।
माँ, बहन, पत्नी, प्रेमिका, हर रूप में सदैव अनूठी हो।।
प्रथम षिक्षिका तुम मानव की।
विध्वंसक हो तुम दानव की।
कभी मृत्यु की देवी हो तुम,
प्रेम भरी फुहार सावन की।
रहस्य नीति से छलती जग को, प्रेम से जग को लूटी हो।
माँ, बहन, पत्नी, प्रेमिका, हर रूप में सदैव अनूठी हो।।
काम की देवी रति तुम्ही हो।
वेदों की भी ऋचा तुम्हीं हो।
लक्ष्मण की तुम रेख न लांघो,
रामायण की सीता तुम्हीं हो।
वैभव की देवी लक्ष्मी हो, शक्ति स्रोत, ना चूँटी हो।
माँ, बहन, पत्नी, प्रेमिका, हर रूप में सदैव अनूठी हो।।
गंभीरता की खान तुम्हीं हो।
हल्की होकर पान तुम्हीं हो।
सहनषीलता की देवी तुम,
षिक्षा की तो शान तुम्हीं हो।
पुरुषार्थ असफल हो जाता, किस्मत संगिनी रूठी हो।
माँ, बहन, पत्नी, प्रेमिका, हर रूप में सदैव अनूठी हो।।