कविता
मैं कुछ नहीं कहूंगी
नहीं बोलूंगी एक शब्द
तुम्हारी जो इच्छा हो करो
मैं नहीं रोकूंगी तुम्हें
वैसा कुछ करने से
जो तुम चाहते हो करना।
धरती पर आकाश उतारना
या आकाश का ही
धरती को खींच लेना
अपनी ओर।
पहाड़ों से नदियां बहाना
पत्थरों पर उगाना घास
असम्भव को बनाना सम्भव।
मैं नहीं हूं आकाश
न ही नदी हूं
और न ही हूं मैं पत्थर।
एक सम्भावना जरूर हूं
मैं तुम्हारी,
असम्भावनाओं के बीच।
मैं चलूंगी तुम्हारे साथ
बनकर सामाजिक न्याय
की आवाज़।
सच की तलाश में,
मनुष्यता के एहसास में।
कोई हस्तक्षेप नहीं होगा मेरा
यह जान लो तुम।
— वाई. वेद प्रकाश