अन्तिम यात्रा: एक कड़वी सच्चाई
मेरे घर के पास वाले मकान में बाबूलालजी शर्मा का मकान था। वे बहुत ही सरल एवं भले व्यक्ति थे। अपने काम से काम रखते थे। वे बिजली विभाग में क्लर्क के पद से सेवानिवृत्त हुए थे। उनके परिवार में उनकी पत्नी कमलादेवीजी एवं दो बेटे थे। बड़े बेटे का नाम रमेश एवं छोटे बेटे का नाम महेश था। उन्होंने बड़ी मेहनत से अपने परिवार को पाला, बच्चों को पढ़ाया लिखाया तथा छोटी-छोटी बचतों से दो कमरे का एक मकान बनाया। अपने रिटायरमेंट के पैसों से बच्चों की शादियाँ भी अच्छे से की। बच्चें भी दूसरे शहरों में अच्छी-अच्छी नौकरियों पर लग गये थे और वहीं रहकर अपना परिवार बनाने में व्यस्त हो गये। समय के चलते बच्चों के बच्चें भी अब बड़े हो गये। इसलिए कभी-कभार, होली-दिपावली अथवा कोई आवश्यक कार्य हो तो ही वे उनसे मिलने आते थे। और कोई करीबी रिश्तेदार तो उनका था नहीं इसलिए उनका कहीं आना जाना भी नहीं था। अपनी पत्नी के साथ अपने बनाये हुए घर में अकेले ही रहते थे।
साधारण आदमी होने से उन्होंने कभी भी अपने बच्चों की निजी जिन्दगी में दखल देना उचित नहीं समझा। पिछले कई महिनों से बच्चें भी उनसे मिलने को नहीं आये। उनकी पत्नी भी बच्चों की याद में अक्सर बीमार ही रहती थी। बीमारी की वजह से वह काफी कमजोर हो गई। इसके चलते कल उनकी पत्नी का निधन हो गया। माँ के निधन की सूचना भी बच्चों को दे दी गई थी। आस-पड़ौस वाले भी शर्माजी के घर पर उनको सान्तवना देने को इकट्ठे हुए। करीबी रिश्तेदार न होने से आस-पड़ौस के लोगों ने ही उनकी पत्नी के अन्तिम संस्कार की तैयारी शुरू कर दी। उनके बच्चों की राह देखने के साथ-ही-साथ वे अर्थी सजाने की तैयारी भी कर रहे थे और यह भी देख रहे थे कि अन्तिम समय में उनके दोनों बच्चें एक बार अपनी माँ का चेहरा देख ले।
काफी समय बीत जाने पर शर्माजी का छोटा बेटा महेश अकेला आया और कौने में बैठे अपने पिता से गले मिल कर रोने लगा। शर्माजी ने उसे ढ़ाढस बंधाते हुए कहा कि- ‘‘बेटा! तू अकेला ही आया है, बहू और बच्चें नहीं आये साथ में?
महेश ने बड़े ही अनमने स्वर में कहा- ‘‘पापा! आप तो जानते है कि अभी बच्चों की परीक्षाएँ चल रही है, इसलिए मैं अकेला ही आया हूँ। चलिए अब हम सब माँ के अन्तिम यात्रा की तैयारी करते हैं, मुझें वापस कल जाना भी है।’’
यह सुनकर बाबूलालजी ने बड़े ही दुःखी मन से उससे कहा-‘‘थोड़ी देर और रूक जाते है, तेरा बड़ा भाई रमेश भी तो आ जाये पहले, वह भी अपनी माँ के अन्तिम समय में उसका मुँह देख लें।’’
महेश ने बड़ी ही लापरवाही से कहा- ‘‘पापा! यहाँ आते समय मेरी बड़े भैया से बात हो गयी है, वे अभी अपने किसी काम में व्यस्त है, उन्होंने मुझसे कहा कि मम्मी के अन्तिम संस्कार में अभी तू चला जा, मैं पापा के अन्तिम संस्कार में चला जाऊँगा।’’
महेश के मुँह से ऐसी बात सुनकर तो बाबूलालजी को लगा कि किसी ने एक बड़ा सा पत्थर उठाकर उन पर फैंक दिया है। जिन बच्चों को बड़े ही लाड़-प्यार से बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया, उनकी शादियाँ की उन्हीं बच्चों के अपने बारे में ऐसे विचारों को सुनकर उन्हें बहुत धक्का लगा। बड़े ही रूहासे होकर बाबूलालजी ने महेश को लगभग अपने से दूर करते हुए कहा- ‘‘तू भी चला जा यहाँ से और उसे भी कह देना कि मेरे मरने के पश्चात् भी आने की उसे कोई आवश्यकता नहीं है। मैं कर लूंगा अपनी जीवन संगनी का अंतिम संस्कार। मुझें किसी की भी जरूरत नहीं है।’’
मित्रों! यह सिर्फ एक कहानी ही नहीं है, एक कड़वी सच्चाई भी है। ऐसी घटनाएँ हमारे आसपास अक्सर घटित होती रहती है और हम सिर्फ मुकदर्शक बनकर उन्हें नजरअंदाज कर देते हैं। आज आवश्यकता है इस पर चिन्तन करने की कि कहाँ कमी रह गई हममें अपने बच्चों को संस्कार देने में। हमारे भारत देश में जहाँ आज्ञाकारी पुत्र मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, श्रवणकुमार एवं छत्रपति वीर शिवाजी महाराज जैसे संस्कारित बच्चों ने जन्म लिया। जिस देश में माता-पिता को भगवान का दर्जा दिया जाता है। यह सत्य भी है कि एक जीव को दुनिया दिखाने वाले वे किसी भगवान से कम नहीं होते। एक औलाद को पाने के लिए वे ना जाने कितने मंदिरों में जाकर भगवान से मिन्नतें करते हैं। कितनी-कितनी तपस्याएँ करने के साथ ही कितने ही मंदिरों की चैखट को पूजते एवं चूमते है। तब कहीं जाकर एक पुत्र या पुत्री के रूप में उनको संतान की प्राप्ति होती है। बड़ी मिन्नतों से प्राप्त उस सन्तान को बड़ा करने में वे कितना खून-पसीना एक करते हैं। लेकिन जब वे ही सन्तानें पढ़-लिखकर, काबिल बनकर माता-पिता को उनके जीवन के अन्तिम पड़ाव में अकेला छोड़कर अपने-अपने परिवार को लेकर जीविकापार्जन हेतु किसी दूसरे शहरों में जाकर बस जाते हैं। साथ-ही-साथ उनके अन्तिम समय में भी उनके अन्तिम दर्शन एवं उनको कंधा देने तक का भी उनके पास समय नहीं होता। क्या इस दिन को देखने के लिए ही माता-पिता अपने सन्तानों को काबिल बनाने में अपना खुन जलाते हैं। मैं यह नहीं कहता कि दुनिया से इन्सानियत समाप्त हो गई, परन्तु कहीं-न-कहीं और किसी-न-किसी में मर जरूर गई है। आप भी इस चिन्तन से कहीं-न-कहीं सहमत जरूर होंगे।
— राजीव नेपालिया (माथुर)