पर्यावरण

पर्यावरण प्रदूषण का समाधान : यज्ञ – हवन अनुष्ठान 

हमारा पर्यावरण पृथ्वी पर स्थित पेड़ – पौधों, प्राणियों, जंगलों, नदियों तथा पर्वतों से बना है। इसी को प्रकृति भी कहते हैं। पर्यावरण शब्द परि तथा आवरण से बना है। परि का अर्थ परितः (चारों ओर), आवरण का अर्थ है आच्छादित। अतः पर्यावरण का अर्थ है कि चारों ओर से घिरा हुआ। पर्यावरण के लिए परिवेश, वातावरण, परिस्थिति जैसे शब्द भी प्रयोग में लाए जाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि ईश्वर की सृष्टि में जो कुछ भी है,वह सब पर्यावरण है। 

         पर्यावरण प्रदूषण आज सभी की चिंता का कारण बन गया है। आधुनिकता की दौड़ में आगे निकलने की होड़, अंधाधुंध विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अधिकतम दोहन, बढ़ती जनसंख्या, शहरीकरण,प्लास्टिक का बढ़ता उपयोग, औद्योगिकीकरण, पृथ्वी, सागर और पर्वत पर विस्फोट, वृक्षों का कटान, वाहनों और मशीनों का धुआँ आदि के समन्वित प्रभाव से आज धरती का पर्यावरण इस सीमा तक घातक हो चुका है कि जल. थल और वायुमण्डल सभी में निवास करने वाले जीव – जन्तुओं और वनस्पति का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। मनुष्य गलियों, सड़कों पर. जहाँ चाहे वहाँ कूड़ा-कचरा, टायर , रबड़, प्लास्टिक, पराली आदि जलाकर वायु को प्रदूषित कर रहा है। 

         वायु प्राणशक्ति ही है। उसके बिना जीवन असंभव है। वैदिक उद्घोष है कि स्वच्छवायुसेवन ही हितकर है, वही हमारे हृदय को शांतिकर-सुखकर औषधि प्रदान करता है तथा आयुर्वृद्धि करता है – 

वात आ वातु भेषजं शंभु मयोभु नो हृदे। 

परंतु विडंबना यह है कि आज हम घरों के भीतर भी प्रदूषण के दुष्प्रभावों से सुरक्षित नहीं रह गए हैं, वायु प्रदूषण इतना अधिक बढ़ चुका है कि साँस लेना दूभर हो गया है। 

       महानगरों की दशा बहुत ही शोचनीय है। यहाँ प्रदूषण का कारण दैनिक गैसीय उत्सर्जन लगभग 3000 मैट्रिक टन होता है, जिसमें 70 प्रतिशत वाहनों और थर्मल पावर प्लांट तथा 13 प्रतिशत औद्योगिक इकाइयों से और 17 प्रतिशत अन्य साधनों से होता है। वायु प्रदूषण से कार्बन डाईआक्साइड, कार्बन मोनोआक्साइड, नाइट्रोजन आक्साइड, सीसा आदि वातावरण में भर जाता है, जिससे अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। 

       पर्यावरण प्रदूषण की मुख्य समस्या का आधिपत्य समस्त दिशाओं में स्थापित है, जो वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण और भूमि प्रदूषण के रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है, 

     किंतु सभी प्रदूषणों में अत्यंत विकराल समस्या ‘वायु प्रदूषण’ की है, क्योंकि इसी वायु प्रदूषण से जल प्रदूषित होता है और जल से भूमि, भूमि से अन्न. अन्न से मन, मन से विचार, विचार से बुद्धि. बुद्धि से कर्म और कर्म से सबकुछ प्रदुषित हो जाता है। 

        यह प्रदूषण की समस्या मात्र भारत की नहीं, अपितु संपूर्ण विश्व की सबसे बड़ी समस्या है। इसी समस्या के परिणाम स्वरूप वायुमण्डल में सूर्य से निकलने वाली अनेक हानिकारक किरणें जैसे – पराबैंगनी (अल्ट्रा वायलेट रेज) किरणों आदि से पृथ्वी को बचाने में प्राकृतिक सुरक्षा कवच के रूप में स्थापित ओजोन की पर्तों में बड़े-बड़े छिद्र हो गए हैं, जिससे यह हानिकारक किरणें पृथ्वी पर पहुँच रही हैं और  ‘ग्लोबल वार्मिंग’ की स्थिति समस्त प्राणियों को हानि पहुँचा रही हैं। फलतः अनेक प्रकार के बैक्टीरिया और वायरस नाना प्रकार के रोगों को जन्म दे रहे हैं। आज लगभग प्रत्येक व्यक्ति, यहाँ तक कि पशु – पक्षी तथा वनस्पतियाँ भी विभिन्न रोगों से प्रभावित होकर नष्ट एवं लुप्त हो रहे हैं। 

          विचारणीय है कि पेड़ भी जीवित हैं, प्राणी हैं, वे भी साँस लेते हैं। पेड़ – पौधों की श्वसन प्रणाली में भी मनुष्यों के समान आक्सीजन और कार्बन डाई – आक्साइड की ही भूमिका है, अंतर केवल इतना ही है कि मनुष्य दिन तथा रात्रि दोनों कालों में आक्सीजन लेते हैं और कार्बन डाई – आक्साइड छोड़ते हैं, किन्तु कुछ के अतिरिक्त वृक्ष दिन में कार्बन डाई – आक्साइड लेते हैं और आक्सीजन छोड़ते हैं और रात में इसके विपरीत श्वसन क्रिया करते हैं। इसी के साथ वायुमण्डल में उपस्थित नाइट्रोजन गैस भी वनस्पति के लिए आवश्यक तत्व है। इसके विपरीत वायुमण्डल में उपस्थित कार्बनमोनोआक्साइड, कार्बन डाईसल्फाइड, सल्फर डाईआक्साइड आदि विषैली गैसें मनुष्य के साथ – साथ पेड़ – पौधों के लिए भी हानिकारक हैं। अब जब इन विषैली गैसों की उपस्थिति और संपर्क में वृक्ष ही स्वस्थ और जीवित नहीं बचेंगे, तो वे मनुष्यों को क्या और कैसे लाभ पहुँचा सकेंगे! 

पर्यावरण शुद्धि के लिए आर्ष ग्रंथो में हैं यज्ञ – हवन के निर्देश 

        आज विश्व में अनेक प्रकार के शोध हो रहे हैं, किन्तु अभी तक कोई ऐसा शोध नहीं हो पाया है, जो इस प्रदूषण की समस्या का निराकरण कर सके। आज तक पूरी दुनिया में ऐसा कोई भी साधन, यंत्र या क्लीनर नहीं बना है, जो वायुमण्डल के प्रदूषण को स्वच्छ कर सके। ऐसी स्थिति में संसार के प्राचीनतम ग्रंथ ‘वेद’ तथा भारतीय दर्शन में ऋषियों द्वारा बताए गए ‘यज्ञ – हवन अनुष्ठान’ उपाय पर दृष्टि डालनी होगी।

           प्राचीनतम ग्रंथ वेद में बताया गया है – 

1.यज्ञ(हवन /अग्निहोत्र) के द्वारा वायु और वर्षा – जल की शुद्धि होती है। 

(यजुर्वेद अ. 1,मंत्र – 20)

2.यज्ञ द्वारा शुद्ध किया गया वर्षा – जल औषधियों को पुष्ट करने वाला होता है। 

(यजुर्वेद अ. 2.मंत्र-1)

3.मनुष्यों को वायु और जल की शुद्धि करके श्रेष्ठ और उत्तम सुख प्राप्त करने के लिए सुगंधित, पौष्टिक, औषधि तथा गोघृत आदि पदार्थों की आहुति करके नित्य प्रति यज्ञ – हवन करना चाहिए। यज्ञ करने से संसार में सब रोग आदि नष्ट होकर, उसमें शुद्ध गुण प्रकाशित होते हैं। (यजुर्वेद अ. 1,मंत्र – 13) 

    अग्नि में जिन – जिन पदार्थों से हवन किया जाता है, अग्नि के द्वारा परमाणु रूप हुए उन पदार्थों को सूर्य अपनी किरणों के द्वारा खींचकर वायु के संयोग से रासायनिक क्रिया कराकर मेघ – मण्डल में स्थापित करता है और फिर वर्षा के द्वारा उन्हें पृथ्वी पर गिरा कर प्राणियों को सुख प्रदान करता है। 

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में यज्ञ करने का उपदेश दिया है – तुम लोग यज्ञ के द्वारा पवन देवता, वरुण देवता अर्थात वायु और जल को उन्नत करो. तब वे देवता तुम्हें उन्नत (संतुष्ट तथा पुष्ट) करेंगे। 

(गीता अध्याय – 3,श्लोक – 11)

     भगवत गीता में ही यज्ञ की महत्ता बताते हुए कहा गया है कि यज्ञ से बादल बनते हैं, बादलों से अन्न का निर्माण होता है और अन्न से प्राणी जीवित रहते हैं। 

महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपने ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में अथर्ववेद के मंत्र को उद्धृत करते हुए कहा है कि जो संध्याकाल में हवन किया जाता है, वह सायंकाल से लेकर प्रातःकाल तक और जो प्रातःकाल हवन किया जाता है, वह प्रातःकाल से लेकर सायंकाल तक, वायु की शुद्धि द्वारा सुखदायक तथा आरोग्यकारक होता है। 

(अथर्ववेद काण्ड – 19, सूक्त -55,मंत्र 3, 5)

नामधारी सिखों के नियम – गुटके में लिखा है कि साहिब गुरु गोविंद सिंह जी की यज्ञ – हवन में बड़ी प्रीति थी-

हम जब हवन जग्य करवै हैं। 

खुश होइ घन जल बहु बरसैहैं। 

पवन हवन ते शुद्ध भवै है। 

रोग सोग सब दूर नसै हैं। 

हवन – यज्ञ तो हमारे धर्म का सार है। इसे तो राजे – महाराजे, ऋषि – मुनि और अवतार करते आए हैं, जिससे भारी अकाल, खाद्यान्न संकट , अनावृष्टि तथा संक्रामक रोग आदि का दुःख नहीं होता था। इसीलिए रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों में राम, लक्ष्मण, सुमित्रा. वशिष्ठ. विश्वामित्र, अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर तथा कृष्ण द्वारा यज्ञ – अग्निहोत्र का नित्य अनुष्ठान करने के प्रसंग प्राप्त होते हैं। महर्षि मनु ने भी मनुस्मृति में प्रतिदिन प्रातः – सायं यज्ञ करने के लिए निर्देशित किया है। यज्ञ हमारे सामाजिक जीवन का प्रधान स्वरूप था। प्रजापति ने सृष्टि करके कहा था – ‘यज्ञों के द्वारा तुम फलो-फूलो, ये तुम्हारी इष्ट वस्तुओं को प्रदान करेंगे। जब तक भारतवर्ष में यज्ञों का अनुष्ठान होता रहा, भारतीय प्रजा सब प्रकार से उन्नत और समृद्ध थी। 

 यज्ञ – हवन की वैज्ञानिकता पूर्णतः प्रमाणित 

हमारे प्राचीन ऋषि – मुनियों ने वैज्ञानिक आधार पर शोध करके यज्ञ – सामग्री तथा समिधाओं का चयन किया था, जैसे बड़, पीपल, आम, बिल्व, पलाश, शमी, गूलर, अशोक, पारिजात, आंवला आदि वृक्षों की समिधाओं का घी सहित यज्ञ – हवन में विधान किया था, जो आज विज्ञान सम्मत है। यज्ञ का वैदिक उद्देश्य भी पर्यावरण शुद्धि एवं संतुलन है। एक वैज्ञानिक सिद्धांत के अनुसार अग्नि पदार्थों के सूक्ष्मतिसूक्ष्म होने पर उनकी क्रियाशीलता बढ़ जाती है। यज्ञ में डाली गई समिधा अग्नि द्वारा विघटित होकर सूक्ष्म बनती है और विस्तृत क्षेत्र को प्रभावित करती है। उदाहरण के लिए यदि एक व्यक्ति एक चम्मच घी खाता है, तो केवल उसी को स्वास्थ्य लाभ मिलता है, किंतु यज्ञ कुंड में एक चम्मच घी हवन द्वारा अनेक व्यक्तियों को लाभ पहुँचाता है, क्योंकि यज्ञाग्नि के प्रभाव से वहाँ की वायु हल्की होकर फैलने लगती है और उस रिक्त स्थान में यज्ञ से उत्पन्न शुद्ध वायु वहाँ पहुँच जाती है। इसमें विसरणशीलता का वैज्ञानिक नियम काम करता है। घी, तेल में वसा गर्म होने से ग्लिसरोल बनता है, बाद में एक्रोलीन का निर्माण करता है, इसमें कीटाणुनाशक गुण होते हैं। अग्निहोत्र से एथिनीन आक्साइड, थाइमोल, तथा प्रोपेलीन गैसें निकलती हैं, जो वातावरण को शुद्ध करती हैं। यज्ञ की अग्नि और राख भी घातक विकिरण के उन्मूलन या कमी करने में प्रभावी है। 

    प्रायोगिक अध्ययनों से सिद्ध हो चुका है कि जिन घरों में नियमित रूप से यज्ञ (हवन) किया जाता है, वहाँ शारीरिक रोग या बीमारी की घटनाएँ नहीं होती हैं, क्योंकि इससे शुद्ध, पौष्टिक और औषधीय वातावरण बनता है। यज्ञ में धूनी देने वाले पदार्थों के घटक इलेक्ट्रानों के माध्यम से शुद्धि इस प्रक्रिया का स्पष्ट प्रभाव है। 

     डॉ हाफकिन के अनुसार – ” घी, चावल, केसर और चीनी को मिलाकर जलाने से धुआँ निकलता है, जिससे कई रोगों के कीटाणु मर जाते हैं। हविष्य में विद्यमान शर्करा में वातावरण शुद्ध करने की पर्याप्त क्षमता होती है। एक रूसी वैज्ञानिक के अनुसार ‘गाय के दूध में परमाणु विकिरण से सुरक्षा की शक्ति होती है। यदि गाय का घी यज्ञ अग्नि में डाला जाए तो धुएँ से परमाणु विकिरण का प्रभाव पर्याप्त स्तर तक कम हो जाता है। यज्ञ कुंड में गाय के गोबर के उपले जलाने पर मीथेन विघटित होकर पर्याप्त भाग में हाइड्रोजन उत्पन्न करती है जो ग्लोबल वार्मिंग को रोकने का सर्वोत्तम साधन है। 

      सूक्ष्म जीव विज्ञान के शोधकर्ताओं द्वारा माना गया है कि अग्निहोत्र के धुएँ से हानिकारक बैक्टीरिया और अन्य सूक्ष्म जीव नष्ट हो जाते हैं। जब यज्ञ किया जाता है. तो थाइमोल, यूजेनॉल, पाइन, टैरपिनॉल जैसे पदार्थ और चंदन. गुग्गुल, अगर, तगर, इलायची, देवदार, कपूर और लौंग को जलाने से अनेक कृमिनाशक गैसें निकलती हैं, जो वायुमण्डल की अपवित्रता को नष्ट करती है।इन गैसों के प्रसार के कारण  वातावरण  में सुगंध को आसानी से अनुभव किया जा सकता है। 

यज्ञ वायुमण्डल संतुलन में सहायक 

पर्यावरणविद यह मानते हैं कि आदर्श वायुमण्डल में धनायन तथा ऋणायन लगभग समान मात्रा में उपस्थित रहते हैं किंतु औद्योगिकीकरण एवं आधुनिक रहन-सहन के कई कारणों से धनायनों की संख्या बढ़ती जा रही है, जिससे असंतुलन उत्पन्न हो गया है। यज्ञ में जलाई जाने वाली विभिन्न वस्तुओं से यदि ऋणायन पैदा होते हैं, तो यह माना जा सकता है कि यज्ञ वायुमण्डल के संतुलन में सहायक है। आज इस तथ्य को क्रियान्वित एवं सिद्ध करने के लिए यज्ञस्थलों पर वायुमण्डल का विश्लेषण, यज्ञ प्रारंभ होने से यज्ञ समाप्ति के बाद तक किया जाए और जन – जन को इसके परिणाम से अवगत कराया जाए। 

निष्कर्ष 

यज्ञ किसी वर्ग विशेष या संप्रदाय से जुड़ा मात्र आस्था का प्रतीक या कर्मकाण्ड नहीं है, जिसमें देवताओं को प्रसन्न करने के उद्देश्य से हवन कुंड के भीतर अग्नि प्रज्ज्वलित कर कुछ मंत्रों को बोलकर स्वाहा – स्वाहा की ध्वनि के साथ घी और हवन सामग्री की आहुतियाँ डाली जाती हैं। अपितु यज्ञ पदार्थ विज्ञान पर आधारित रसायन शास्त्र से जुड़ी पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखते हुए जीव – जंतुओं तथा वनस्पतियों के बीच संतुलन बनाए रखने की एक सरल,दोष रहित एवं पूर्ण वैज्ञानिक प्रक्रिया है। अतः यदि संपूर्ण मानव जाति नियमित रूप से यज्ञ – हवन करना आरंभ कर दे, तो पेड़ – पौधे, वनों, पर्वतों एवं आकाश को सुरक्षित,स्वच्छ, संरक्षित तथा विस्तारित किया जा सकता है। यह पर्यावरण प्रदूषण की समस्या के समाधान में एक धनात्मक कदम होगा। 

        अस्तु. आइए हम सब सामूहिक यज्ञ का संकल्प लें – ‘यज्ञ को अपनाइये, वायु प्रदूषण भगाइये।’ 

गौरीशंकर वैश्य विनम्र 

गौरीशंकर वैश्य विनम्र

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