न चाह कोई न राह कोई
रोशन गलियां सारी हैं, फिर भी कोई अंधेरा
जो राह दिखाये जीने की, रहनुमा वही लुटेरा
ऐसे रात सिमट जाती, बेनूर बहुत महताब यहाँ
शबनम नही बिखरती है, अब होता नही सवेरा
है सूनी शज़र परीदों से, दरख़्त यहाँ सैय्याद बने
फ़िजा संग खिज़ा यहाँ रहती, है बाग बहुत घनेरा
एतबार यहाँ पर जख्मी है, उठा यहाँ से भरोसा
खानाबदोसों की महफ़िल ये, बदलता इनका डेरा
न चाह कोई न राह कोई, फरेबी नजर नजारे हैं
गाज़ा महज दिखावा है, “राज” भरा है इनका फेरा
राजकुमार तिवारी “राज”
बाराबंकी यू० पी०