अवसाद
ये अवसाद के काले बादल न जाने कब छटेंगे
आशा की स्वर्णिम धूप न जाने कब खिलेगी ?
इन स्याह रंगों से अब जी घबराता है
इन्द्रधनुषी रंग जीवन में न जाने कब बिखरेंगी ?
सब्र की भी अब सब्र खत्म हो चली है
आजमाईशो के ये दौर न जाने कब थमेगी ?
इस हाल में जीना तो मानो एक सज़ा है
इस सजा से रिहाई न जाने कब मिलेगी ?
बड़े बेहिस है ये दुनिया वाले
मेरी लाचारी पर न जाने कब तलक हंसेगी ?
— विभा कुमारी “नीरजा”