मन का मौसम
मन का मौसम ठीक नहीं तो होठों पर भी गीत नहीं।
अरसा हुआ हृदय के पथ से गुजरा कोई मीत नहीं।
तुमने भी तो हाल न पूछा कैसे मेरे दिन गुज़रे
हम बंजारों से जीवन में कितनी बार बसे-उजड़े
कोलाहल के जन अरण्य में अब कोई संगीत नहीं।
सोचा नहीं, दिया कितना कुछ लेकिन जग से लिया नहीं
जले होम में हाथ मगर मैंने किंचित उफ् किया नहीं
नहीं किसी से बैर यहां पर और किसी से प्रीत नहीं।
बाधाएं सौ-सौ आईं पर अपने भी पग रुके नहीं
हम टूटे सौ बार मगर ताकत के आगे झुके नहीं
जीवन है संघर्ष स्वयं से हार नहीं, औ जीत नहीं ।
मन का मौसम ठीक नहीं तो होठों पर भी गीत नहीं,
अरसा हुआ हृदय के पथ से गुज़रा कोई मीत नहीं।
— डॉ. ओम निश्चल