युद्धरत जिंदगी
“सामली, आज मेरी दुकान का उद्घाटन है, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई जो बिना पूछे अंदर चली आई ॽ” जैसे सामली शुभ कार्य में टपकी हुई कोई अशुभ पात्रा हो। रतनलाल ने गंभीर होते हुए कहा।
“इस दीवार के एक-एक ईंट मेरे सिर पर चढ़े हैं, बाबू। बेटा अपनी मांँ को दो रोटी खिला देता है तो क्या दूध के सारे कर्ज उतर जाते हैं ? माना आपने मुझे पूरी मजदूरी भी दी है।”
सामली कब पीछे रहने वाली नारी थी, उसकी जिंदगी तो युद्धरत जिंदगी थी।
— विद्या शंकर विद्यार्थी