हास्य व्यंग्य

स्वर्णयुग

ऑक्सीजन धरती के प्राणियों को जिंदा रखता है और आरक्षण भारत के नेताओं को।आज़ादी के बाद भारत के सामाजिक विकास के लिए विद्वानों ने कुछ जातियों को पिछड़ी श्रेणी में रखने का निर्णय किया था। लेकिन नेताओं चमत्कार देखिए। चुनाव में हर पार्टी दावा करती है कि देश का विकास कर दिया और दूसरी ओर अफसोस भी कि कुछ जातियाँ अब तक पिछड़ी हैं। इससे बड़ा चमत्कार तो तब लगता है जब कुछ जातियाँ अगले वर्षों में फिर पिछड़ जाती हैं। ये विरोधाभास अपनी तो समझ के परे है। अब तो वे धर्मावलंबी भी पिछड़ों की जमात में आने लगे जो समानता और भाईचारे के नाम पर एक-दूसरे का जूठा खाने में अपनी शान समझते थे। यानि चित भी मेरा पट भी मेरा और अंटा मेरे बाप का। बेचारा मेहनत करनेवाले प्रतिभाशाली के हाथ आता है- बाबाजी का ठुल्लू। आरक्षण रूपी अप्सरा का उपभोग करते ऐसे पिछड़े भी मिल जाते हैं जिनके परिवारों में ऊँचे सरकारी पदों पर अनेक विश्वामित्र बैंठे हैं। आरक्षण की बैसाखियों को बगल में दबाकर इस देश में अनेक भूस्वामी हैं जिनकी एकड़ – हेक्टरों में ज़मीन फैली है। कुछ के पास डिग्रियों का अंबार है लेकिन आरक्षण का प्रमाणपत्र न होना उनकी अधूरी शिक्षा को प्रमाणित कर देता है।
बड़ी विचित्र स्थिति है कोई प्रगति नहीं करना चाहता। सबको पिछड़ने में मज़ा आता है। सरकारें विकास करवाना चाहती हैं मगर पिछड़वाकर। ये देश प्रगति ही नहीं कर सकता। शारीरिक विकलांगता की चिकित्सा संभव है, लेकिन कोई मानसिक रूप से ही विकलांग हो चुका हो तो उसका क्या करोगे? न जाने इस देश में वह दिन कब आएगा जब यह घोषणा करेगी कि इस वर्ष इतनी संख्या में जातियाँ पिछड़े वर्ग से निकलकर विकसित हो गईं। तब निसंदेह देश में स्वर्णयुग का सूत्रपात होगा। पर क्या इस देश के तथाकथित पिछड़े लोग यह होने देंगे?

— शरद सुनेरी