आत्मीय रिश्तों की ताकत
पक्षाघात के दूसरे प्रहार के बाद मेरा कहीं भी आना जाना बहुत कठिन हो गया है। बहुत आवश्यक और विशेष परिस्थितियों में ही किसी तरह आने जाने की योजना पर ही विचार कर पाता हूं। उसके लिए चार पहिया वाहन की व्यवस्था पहली प्राथमिकता में शामिल होता है। १२.१०.२०२२ के बाद पहली बार २८ मई २०२३ को मतंग के राम साहित्यिक आयोजन में डा. आर के तिवारी मतंग जी के विशेष आग्रह पर अनुज, कवि/ एड. डा. राजीव रंजन मिश्र जी और बड़ी बहन/वरिष्ठ कवयित्री प्रेमलता रसबिंदु जी के संरक्षण में अयोध्याधाम, २६ नवंबर २०२४ को बहन/कवियित्री अंजू विश्वकर्मा के स्नेह आमंत्रण पर उनके पुस्तक विमोचन मे धर्म पत्नी एवं छोटी बहन कवियित्री ममता के साथ और ०७ अप्रैल २०२४ को अग्रज/कवि अभय कुमार श्रीवास्तव जी और बहन ममता के साथ गोरखपुर गया हूं।
इन तीनों साहित्यिक यात्राओं ने मुझे जिस आत्मीयता का बोध कराया है, उसका वर्णन करना कठिन है। शारीरिक दुश्वारियों के बीच यात्रा ही नहीं आयोजनों में मुझे मान , सम्मान, सहयोग और हौसला मिला, उसके लिए मेरे पास शब्द नहीं है। उक्त आयोजनों में शामिल होने के बाद मुझे जो आत्मबल प्राप्त हुआ, उससे मेरी सक्रियता को तो कम लेकिन आत्मविश्वास में जो बढ़ोतरी हुई, उसे मैं अपने लिए बूस्टर डोज मानता हूं।
क्योंकि उक्त आयोजनों में शामिल होकर अनेकानेक अनुज/अग्रज, हम उम्र कवियों/कवयित्रियों ने जिस आत्मीयता, सम्मान का उदाहरण प्रस्तुत किया, उसे याद करके अक्सर आंखें नम हो जाती हैं। क्योंकि बहुत हौसला रखने के बाद भी कभी कभी खुद अपने ही जीवन से डर लगता है।
लेकिन जिन लोगों से कभी मिला नहीं, या पहली अथवा दूसरी बार मिला, जिनसे कोई रिश्ता नहीं, बस आभासी पटलों, माध्यमों से ही हमारा आत्मीय रिश्ता बना है। अधिसंख्य आसपास के भी नहीं है, इस बात को लेकर आश्वस्त होने में भी डर लगता है कि क्या अगली मुलाकात आमने सामने हो सकेगी? शायद हां या शायद नहीं।
लेकिन इन्हीं आभासी रिश्तों में कुछ ऐसे भी अटूट रिश्ते भी हो गये हैं, जो पूर्व जन्म के रिश्तों का बोध कराते हैं। माता पिता तुल्य, बहन बेटियों सरीखे भाईयों बहनों से जो अविश्वसनीय अटूट स्नेह, संबल और विश्वास मिला और मिल रहा है उससे लगता है कि अब जीवन में कुछ भी शेष नहीं है।
क्योंकि आज के जमाने में जब अपने ही नजर अंदाज कर खुश हो रहे हैं, तब मानवीय रिश्तों के इस गठजोड़ का महत्व स्वत: ही बढ़ जाता है।
इसका अनुभव मुझे हुआ, पहली, दूसरी चंद घंटों की मुलाकात में मेरी परिस्थितियों का मजाक बनाने के बजाय जितनी गंभीरता से मुझे विभिन्न लोगों ने संरक्षण, संबल दिया, वह वाकई मुझे गौरवान्वित करने के लिए काफी है। दो उदाहरण देना चाहूंगा कि एक वरिष्ठ कवि साहित्यकार ने अयोध्या के आयोजन में पूरे समय पिता तुल्य संरक्षण दिया। तो बहनों/भाईयों ने सगे भाई की तरह मेरी हर छोटी बड़ी सुविधा का ध्यान रखा। लगभग ऐसा ही बोध गोरखपुर के एक आयोजन में मुझे हुआ जब एक मुंहबोली छोटी बहन जब तक साथ रही माँ की तरह कवच बनी रही। उसके स्नेह और जिम्मेदारी ने मुझे कई बार रुलाया। उससे विदा लेते हुए जब मैंने सम्मान की दृष्टि से उसके पैर छुए तो वह भी भावुक हो और उसकी आंखों में आदर्श सम्मान के मोती दिलाने लगे। जो हौसला मुझे देना चाहिए था वो उसने गले लग कर उल्टा मुझे ही दिया।
ऐसे अनेकानेक आभासी रिश्तों ने अल्पकालिक मुलाकात में जो खुशियां मुझे दी हैं, उसका क़र्ज़ उतारने के लिए शायद मेरा दो चार जन्म भी कम पड़ जायेगा। लेकिन इन आत्मीय भावों, व्यवहारों से युक्त रिश्तों ने मेरी जीवन रेखा को जरुर मजबूत कर दिया है, जिसका ऋण उतार पाना असम्भव सा लगता है। ऐसे सभी रिश्तों को नमन वंदन अभिनंदन। यथोचित प्रणाम, चरणस्पर्श, स्नेह, आशीर्वाद। मैं सभी की खुशहाली, उन्नति और सुखद भविष्य की सतत कामना करता हूँ।