साक्षात्कार
तुम्हारा एहसास ही
बांसुरी धुन है
कृष्ण, कृष्ण नहीं होता था
बांसुरी बजाते हुए
और गोपियां
भाव विभोर हो जाती थीं
ठहर जाती थी घड़ी की सूई
ठीक उसी तरह
सांसें बन जाती हैं
जब तुम्हारी यादें
मैं ,मैं कहां होता हूं तब
अदृश्य रहे अभी तक
नहीं ढूंढ़ पाया मूर्तियों में तुम्हें
धर्म ग्रंथो के पन्नों से बाहर नहीं आए तुम
आज बंद कमरे में आए हो
जब मैं
बिस्तर से उठ भी नहीं पाता
खिड़कियां भी नहीं खोल पाता
तुम्हारे स्पर्श का एहसास!
आनंद का ऐसा सैलाब
कोहिनूर पाने में भी नहीं
अप्सरा से ब्याहन में भी नहीं
मां के प्यार में भी नहीं
सृष्टि के किसी दौलत में भी नहीं
तुम करते हो असीम प्यार
इसी में विचरता है संसार
जीवन मृत्यु के दरमियान
जाने अनजाने हम पात्र
हंसते रोते लेकिन
डायरेक्टर को नहीं देख पाते…
तुम्हारे होने का एहसास
एकांतवास में
किसी गुफाओं में ही नहीं
बल्कि कहीं भी
किसी परिस्थिति में भी
जब अजगर के फंदे में होता हूं
मिट्टी होने वाला ही होता हूं
कहता हूं -“अब बेचूंगा नहीं”
तब तुम बचा लेते हो
किस दिशा से आते हो
बिना कुछ बोले
क्षण में अदृश्य हो जाते हो
क्यों इतनी फिक्र करते हो मेरी?
मेरी जिंदगी क्यों प्यारी है तुम्हें?
आखिर क्या है ऐसा मुझ में
जो लगता है तुमको प्यारा
दूसरों के दुख से
बहने लगते हैं आंसू
और अन्याय के खिलाफ
खड़ा हो जाता
क्या यही है तुम्हारे प्यार का कारण?
आंसू के हाथ पैर नहीं होते
खड़ा होना नाकाफी होता है
मुझे ऐसा नहीं बनना
स्वर्ग हो जाए यह धारा
प्रभु! यह वरदान दे दो.
— उमाकांत भारती