उसके आंसू
पिछले माह 07अप्रैल’ 2024 को गोरखपुर के अपने ही एक अग्रज सरीखे साहित्यिक मित्र (जो अपने वादे के अनुसार गोरखपुर से बस्ती केवल मुझे साथ ले जाने के लिए ही आये थे) के साथ एक साहित्यिक आयोजन में बस्ती से गोरखपुर पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार मुँहबोली कवयित्री बहन को भी साथ लेकर जाना था।
स्वास्थ्य संबंधी शारीरिक दुश्वारियों के बीच इस आयोजन में शामिल होना लगभग विवशतावश ही हुआ।
लेकिन एक आत्मविश्वास था, साथ ही वहाँ बहन के साथ होने का संबल बोध भी।
हुआ भी कुछ ऐसा। बहन को साथ लेने जब हम उसके घर पहुंचे, तो भांजी (उसकी बेटी) ने हमें गाड़ी में ही जलपान कराया, क्योंकि समयाभाव और अपनी शारीरिक स्थिति को देखते हुए उसके घर में जाने के लिए मैंने गाड़ी से न उतरने का फरमान जारी कर दिया। उसके बाद हम आयोजन में शामिल होने के लिए निकल पड़े। वहां उसने लगभग हर समय एक बहन नहीं बेटी की तरह मेरा हर तरह से ध्यान रखा। मेरा संबल ही नहीं कवच रुपी आवरण भी बनी रही।
आयोजन स्थल पर वह हर पल मेरी सुविधाओं, गतिविधियों के प्रति सचेत रही, मेरी स्थिति के मद्देनजर कवि, कवयित्रियां मेरे पास ही आकर मिल रहे थे, कुछ ने अपनी पुस्तकें भी दीं, जिसे बहन ही संभाल रही थी। आयोजन में ही बतौर अतिथि किन्नर समाज की महामंडलेश्वर भी पधारीं, लोग उनसे मिल रहे थे, उनके पैर छूकर आशीर्वाद लें रहे थे, बहन भी गई और आशीर्वाद लेकर वापस आकर मुझे सहारा देकर उनके पास ले गई, और उनसे आग्रह किया कि मेरे भैया के सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दीजिए ताकि कि मेरे भैया जल्दी ही ठीक हो जायें, उन्होंने भी उसके आग्रह का सम्मान किया और जब मैंने उनके पैर छुए तब वे स्वयं खड़ी हो गईं, और मेरे सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया। आयोजन के मध्य जब मुझे स्टेज पर ले जाया गया,तब भी वह मेरे पीछे ढाल बन सहारा देती रही, और सम्मान प्राप्त करने के बाद अपनी सुविधा हेतु मैं वहीं बैठ गया। वहां कुछ लोग मेरे साथ फोटो खिंचवाने लगे। बहन को भी मैंने अपने पास की कुर्सी पर हाथ पकड़कर बैठाया,तब उसकी खुशी अविश्वसनीय ही लगी। लेकिन जब उसका हाथ मैंने अपने सिर पर रखा तो वो मेरे कंधे पर सिर रख कर लो पड़ी, उसकी भावना को मैंने गहराई से महसूस भी किया। क्योंकि इसके पीछे के कारण को मैं भली भांति समझ रहा था। शायद इसीलिए वो मुझे बहन, बेटी ही नहीं माँ जैसी भी लगती है।
आयोजन के बाद हम तीन अन्य लोगों के घर मिलने गए। गाड़ी से उतरने, बैठने के अलावा, घर के भीतर आने जाने के लिए भी वह मेरा हाथ पकड़ कर सहारा देती रही। वापसी करते हुए लगभग 9 बजने को आए, घर पर (भांजी) उसकी बेटी अकेली थी, उसके साथ ही अब मुझे भी इस बात की चिंता होने लगी थी। अंततः हम उसके घर लगभग 9.30 बजे पहुंचे। हालांकि काफी विलंब हो चुका था, उस पर मित्र महोदय को मुझे बस्ती छोड़ने के बाद वापस भी लौटना था। लेकिन अब बहन के आग्रह को भी अब ठुकराना इसलिए भी कठिन हो रहा था, क्योंकि इसके पूर्व भी जब मैं उसके घर पत्नी के साथ गया था, तब भी मैं विवशतावश बाहर ही बैठा था, हां पत्नी ने जरुर ननद भौजाई मिलन का लुत्फ उठाया था।
अंततः हम उसके घर में गए और चाय नाश्ता किया, भोजन के उसके आग्रह को जरुर ठुकराना पड़ा, लेकिन उसके चेहरे पर जो खुशी दिखी, उससे आत्मसंतोष भी हुआ। चाय पीते पीते जब मैंने भांजी के पैर छुए तो वह बोल पड़ी, ये सब अभी नहीं भैया, इसकी शादी में तो करना ही है। तब मैं भी नहीं रोकूंगी। मैंने उसे आश्वस्त किया कि जो मेरा कर्तव्य है, उसे तो मैं करुंगा ही। तुम चिंता मत करो।
उससे विदा लेते हुए हमेशा की तरह मैंने जब उसके पैर छुए तो उसने गले लगकर अपना स्नेह दुलार दिया और फिर मैं मित्र के साथ लगभग रात्रि लगभग 12.30 बजे बस्ती पहुंचा। मित्र महोदय हमें घर छोड़कर तुरंत ही गोरखपुर के लिए वापस हो गये, और रात्रि 3 बजे अपने घर पहुंचे।
आज भी जब उस दिन के बारे में सोचता हूँ तो जहाँ बहन के आँसू विचलित कर देते हैं, वहीं छोटी बहन के दायित्व बोध के प्रति नतमस्तक होने को बाध्य करता है।