कविता

मैं जगत नियंता बना

अभी अभी जगत नियंता से मुलाकात हो गई
मुलाकात क्या हुई चुनावी दौर में मेरी चाल
परिणाम आने से पहले ही सफल हो गई ।
मैंने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया
उन्होंने प्रसन्न होकर एक अदद वर मांगने को कह दिया,
इतना सुन मैं फूल कर गुब्बारा हो गया
भगवान को ही अपने चक्रव्यूह में फंसा
मैंने अपनी चाल चल दिया ।
अपने आचरण के विपरीत 
बड़े सलीके से मैंने उनसे निवेदन किया
प्रभु!सचमुच आप कुछ देना चाहते हैं तो
एक दिन के लिए अपने सारे अधिकार दे दीजिए
और तब तक आप मेरी कविताओं का 
आराम से अध्ययन कीजिए।
जगत नियंता अपने वचन के पक्के निकले
तथास्तु कहकर स्थान बदल लिए।
अब मैं उनकी जगह जगत नियंता बन गया
पर मुझे अपनी भूल का अहसास
कुछ ही पलों में हो गया।
तीनों लोकों में अव्यवस्थाओं का तांडव होने लगा
व्यवस्थाओं के सूत्र मुझे दगा देने लगा,
मेरे हृदय की गति अचानक बढ़ने लगी
हृदयाघात का खतरा ही नहीं
प्राणों पर संकट भी नजर आने लगा
और तो और तीनों लोकों का भविष्य डगमगाने लगा।
मैं भागा भागा जगत नियंता के पास आया
और अपना वरदान वापस लेने की जिद करने लगा।
तब उन्होंने कहा- क्यों?
जगत नियंता बन कर आनंद नहीं आया?
मैंने तो तुम्हारी लेखनी का खूब लुत्फ उठाया।
मैं उनके चरणों में लोट गया
प्रभु! बाकी बातें बाद में
पहले अपना वरदान वापस लीजिए,
और तीनों लोकों में हो रही अव्यवस्था को
अपने स्तर से कंट्रोल कीजिए।
वरना सब कुछ खत्म हो जाएगा।
जगत नियंता ने तथास्तु कहकर वरदान वापस ले लिया
सच कहूं तो उन्होंने मुझे पर बड़ा उपकार किया
और मुझे कलंकित होने से बचा लिया।
मैं उनके कदमों में लोट गया
प्रभु! मुझे क्षमा कर दीजिए
ऐसा अति उत्साह में हो गया,
मुझे लगा जगत नियंता के बड़े ठाठ हैं
पर अब पता चला कि किसकी क्या औकात है।
उन्होंने मुझे बड़े प्यार से उठाया
मेरे सिर पर हाथ फिराया
और मुस्करा कर बोले
कोई बात नहीं वत्स!
मैंने अपना वचन निभाया
कम से कम तुम्हें जगत नियंता का मतलब
इतनी जल्दी समझ में आया।
यही है हमारी माया
जिसे तुमने अपनी कविता में बताया
और मुझे भी खूब मजा आया,
कम से कम कुछ पल हमने भी तो सूकून से बिताया।

*सुधीर श्रीवास्तव

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