लघुकथा – अनुकरणीय
मैं रायपुर के माना रोड से अपनी कार से कहीं जा रही थी कि मैंने देखा कि सड़क किनारे बांस के छोटे-छोटे लकड़ियों से घिरे ट्री गार्ड में कोई व्यक्ति प्लास्टिक के कैन से पानी डाल रहा था।मैंने ड्राइवर से कार रोकने को कहा और कार से नीचे उतर गई।
जून की इस भीषण गर्मी में वह व्यक्ति इत्मीनान से यह कार्य कर रहा था। पास ही एक कार खड़ी थी जो शायद उन्हीं की थी।तभी उस व्यक्ति ने आवाज दी-“अरे!बबलू बेटा, जरा कार की डिक्की से दूसरा कैन लेकर आना।इस कैन का पानी खत्म हो गया है।”
मैंने देखा कि एक तेरह-चौदह साल का लड़का कैन लेकर भागता हुआ आया। वे सज्जन अब दूसरे कैन से उन पेड़-पौधों पर पानी डालने लगे। मुझे आश्चर्य हुआ।
मैंने उनसे पूछा-महोदय, आप ये क्या कर रहे हैं?
उन्होंने थोड़े रोष भरे स्वर से कहा-“देख नहीं रही हो?इन सूखे पौधों को पानी दे रहा हूँ।इस पांच जून पर्यावरण दिवस पर लोगों ने पौधे लगाकर सेल्फी तो ले ली पर इन पौधों को पानी देना भूल गए।ऐसा होता ही है कि लोग पौधा रोपण करते जरूर हैं पर उन्हें पानी नहीं देते।ऐसे में ये पौधे सूख कर नष्ट हो जाते हैं।ऐसे पौधारोपण का क्या फायदा?मैं समझता हूं कि ऐसे लोग इन नन्हें पौधों के कातिल हैं। मैं बस यही काम करता हूँ कि अपनी कार में बड़े-बड़े प्लास्टिक के कैन में पानी भरकर लाता हूँ और इस भीषण गर्मी में बेचारे इन पौधों को पानी दे देता हूँ।लोग गर्मी में प्यासे को पानी पिलाते हैं तो मैं इन प्यासे पौधों की प्यास बुझाने का प्रयास करता हूँ। यह काम मैं पूरी गर्मी भर करता हूँ।”
यह सुनकर मुझे बहुत अच्छा लगा कि ऐसा भी कोई कर सकता है।मैं उन्हें प्रणाम कर आगे चल पड़ी इसी विचार के साथ कि अब ऐसा मैं भी करूंगी।
— डॉ. शैल चन्द्रा