ग़ज़ल
इक घूंट जो हमने लगाई थी कि गम कम हो गया।
क्या खूब मयखाने में इक प्याला ही मरहम हो गया।
उसने उठाई जो नज़र मेरी तरफ हौले से यूं।
ऑंखों से निकला अश्क का सैलाब शबनम हो गया।।
ऑंखें हुई जब चार दिल ने पढ़े जज़्बात फिर।
पल भर में जो था अजनबी दिल का वो जानम हो गया।।
ताउम्र चलता है यारों सिलसिला थमता नहीं।
आयीं बहारें फिर भी कुछ हिस्सा यूं ही नम हो गया।।
— प्रीती श्रीवास्तव