मुक्तक/दोहा

दोहा

-माँ / माता

हर दिन होता मातु का, माता होत विशेष।
माता जिसके साथ है, सब कुछ रहे अशेष।।

माता का हर दिवस है, माँ जीवन का सार।
बिन माता मिलता कहाँ, जीवन का आधार।।

माँ के आंचल का मिली, जिसको शीतल छाँव।
बिन  बाधा  चलती  रहे, जीवन  रूपी  नाव।।

माँ चरणों में स्वर्ग है, नहीं  जाइए  भूल।
माथे नित्य लगाइए, माँ चरणों की धूल।।

माँ ने अपने अंश से, दिया  हमें  आकार।
धरती पर भगवान का, मातु रूप साकार।।

शनिदेव

करें नमन शनिदेव को, रख श्रद्धा विश्वास।
पूरी हो हर कामना, होगी जो भी  आस।।

तिल अरु तेल चढ़ाय के, शीष झुकाएं आप।।
रहे कृपा शनिदेव की , कट  जाएंगे ‌पाप ।।

अपने भक्तों का सदा, रखते शनि हैं ध्यान।
जो करता विश्वास है, उसका हो कल्याण।।

सूरज/सूर्य/रवि

ढाता सूरज सितम है, तपिस बढ़ाता नित्य।
आग बबूला  हो रहा, सहा  न जाये कृत्य।।

सूर्य देव कृपा करो, नहीं  जलाओ  आप।
माना हमने किए हैं, किस्म किस्म के पाप।।

सूरज रहता मौन हो, प्रतिदिन करता काम।
बिना थके वह चल रहा, कब रुकने का नाम।।

सुबह सुबह ही सूर्य का, तेवर रहता लाल।
हर प्राणी  का  हो  रहा, रंग  ढंग  बेहाल।।

आँखों  में  अंगार ले , रवि   घूरता   रोज।
भाड़  चना  जैसे भुने, शीतल छाया खोज।।

सूरज आग उड़ेलता, जला रही है धूप।
धरती ऐसे जल रही, जैसे ज्वाला  कूप ।।

चुनाव

जिनको हमने  था चुना, दिया  सभी  ने  दांव।
फिर चुनाव जब आ गया, करें गांव भर कांव।।

फिर चुनाव के दौर में, नया  नया  है  रंग।
नेता  जी  खुशहाल  हैं, जनता  है  बदरंग।।

जनता के  दुखदर्द का, नेता करते ख्याल।
वोटों की खातिर करें, चलते अपनी चाल।।

राजनीति की नीति है, जनसेवक का कर्म।
जीत गये स्वामी  बने  ,भूल गये सब धर्म।।

जनता का अधिकार है, लोकतंत्र के नाम।
खुद की चिंता में घुले, नेता जी का काम।।

सोच समझ कर कीजिए, अपने मत प्रयोग।
पांच साल फिर कीजिए, लोकतंत्र उपयोग।।

मतदाता गुमराह है, हुआ  चुनाव  ऐलान।
नेता जी सेवक बने, मुफ्त  बांटते  ज्ञान।।

विविध

जीवन की खुशियां मिलें, आप रहें खुशहाल।
इतनी  सी  मेरी  दुआ, हो  न  कोई  मलाल।।

शीष झुकाकर मैं करुँ, करें नमन स्वीकार।
बस इतना अनुरोध है,  करें प्रेम व्यवहार।।

नमन करूँ मैं आपको, आप करो स्वीकार।
मन में  जो  संताप  है, उस पर करो विचार।।

दुनिया में पचड़े बहुत, नहीं  उलझिए  आप।
मिलना है बस आपको, थोक भाव में शाप।।

अपने अपने कर्म का, सब करिए श्री गणेश।
मन में कभी न लाइए, राग  द्वेष  औ  क्लेश।।

उम्मीदों से अधिक था, मिला मुझे सम्मान।
मैं तो खुद को मानता, निरा अधम  इंसान।।

मन  मेरा  बेचैन  है, आप  दीजिए  ज्ञान।
ऐसा क्यों है हो रहा, मुझे नहीं कुछ मान।।

पीड़ाओं के बीच में, खुशियों की बौछार।
ऐसा मुझको लग रहा, जैसे हो त्योहार।।

दंभ न इतना कीजिए, मत बनिए अंजान।
रावण के भी दंभ का, लोप हुआ था ज्ञान।।
 
चाह जहां होती वहाँ, मिल जाती है राह।
पथ साधक की साधना, उसे दिलाती वाह।। 

आप सभी करते रहें,अपना अपना कर्म।
नहीं और कोई बड़ा, मानव का निज धर्म।।

नहीं दया की चाह है, नहीं  राजसी  ठाट।
धन दौलत चाहूं नहीं, नहीं महल की खाट।।

दर्शन पाऊं नित्य मैं, रोज मिले वरदान।
पूरे सारे काज हों, बिना किसी व्यवधान।।

समय कहां है आजकल, व्यस्त बहुत सब लोग।
कभी  कभी  ही  मिल रहे, ऐसा क्यों   संयोग।।

माता पिता

मात पिता के चरण में, होता है सुखधाम।
ले पाते हम सुख नहीं, आड़  बहाने  काम।।

जब तक होता है पिता, होते हम बेफिक्र।
आंख मूंद लेते पिता, करें रोज ही जिक्र।।  

नमन चरण में कर रहा, नित्य सुबह औ शाम।
उसके पूरे हो रहे, बिन  बाधा  सब  काम।।

लोक, परलोक

लोक छोड़ परलोक की, चिंता करते लोग।
करते  ऐसे  कर्म  पर, दोषों   से हो योग।।

सेवा  से  पितु  मातु की, सुधरें दोनों  लोक।
सुखद बने जब लोक ये, तभी सुखद परलोक।।

लोक और परलोक की, नहीं मुझे परवाह।
स्वर्ग नर्क से है बड़ा,ईश चरण की चाह।।

मां के चरणों में बसा,सकल सिद्धि भण्डार।
मेरा है विश्वास यह, समझा अब तक सार।।

मरने पर  परलोक  में, जाते  सारे  जीव।
जो हैं लोक बिगाड़ते,रखें नर्क की नींव।।

रोग, भोग अरु योग से,मिले खुशी या शोक।
जब तक हैं इस लोक में, सोच नहीं परलोक।।

मजदूर

मजदूरी वो कर रहा, करता  नहीं  गुनाह।
जीवन चलता यूं रहें, नहीं अधिक की चाह।।

गुरु/गुरुवार

आज दिवस गुरुवार है, ध्यान दीजिए आप।
शीष झुका गुरु चरण में, मिटा लीजिए पाप।।

गर्मी

गर्मी  की  चिंता  करें, और  काटते  पेड़।
घड़ियाली आंसू लगे, रहे मुझे अब छेड़।।

हरे भरे वन मर रहे, है  जी  का  जंजाल।
मानव  तृष्णा  से  भरे, बजा रहे हैं  गाल।।

पशु  पक्षी  बेचैन  हैं, दें  मानव  को  शाप।
धरती माँ भी तप रही, बिना किए ही पाप।।

ताल पोखरा कूप का, नहीं  बचा  अस्तित्व।
मानव में भी मर गया, जीवन का  कृतित्व।।

तापमान  है  बढ़  रहा, जैसे  अत्याचार।
मानव  सुधरेगा  नहीं, भले  मिटे  संसार।।

गर्मी  की  चिंता  करें, और  काटते  पेड़।
घड़ियाली आंसू लगे, जैसे  लगते  भेड़।।

ताल पोखरों कूप का, नहीं  बचा  अस्तित्व।
मानव में भी मर गया, जीवन का अब तत्व।।

गर्मी का नर्तन शुरू, तब  आया  है  ध्यान।
भाव देखकर ताप का, उतर रहा  परिधान।।

गर्मी  से  होता  शुरू,  दिन  जाता  है  बीत।
हम सबके ही कर्म से, आज बनी यह रीपत।।

नहीं चैन है मिल रहा, दिन हो या फिर रात।
दुनिया को दिखला रहा, गर्मी भी औकात।।

वसुधा  के जज्बात  से, खेल  रहे  हैं  लोग।
नित्य ताप जो बढ़ रहा, मत कहिए संयोग।।

सूर्य देव सुनिए जरा, मेरी भी कुछ बात।
जितनी मर्जी कीजिए, आप कुठाराघात।।

सूर्य देव जी कर रहे, उनका जो है काम।

मानव अपने कर्म से, हुआ आज नाकाम।।

*सुधीर श्रीवास्तव

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