सामाजिक

जीवन में संतोष का होना ही असली अमीरी

मनुष्य जीवन में प्राणी का संतोषी होना अत्यन्त आवश्यक है। आइए इसे एक छोटी-सी कहानी से समझते हैंः- एक समय की बात है कि तीन अलग-अलग राज्यों के तीन यात्री एक साथ रेल में सफर कर रहे थे, समय बिताने के लिए उनमें आपसी बातें होने लगी। सभी अपने-अपने राज्यों के बारे में बातें कर रहे थे। बातों ही बातों में अपने-अपने राज्य की प्रगति एवं कल्याण के बारे में भगवान से प्रार्थना करने लगे। पहले यात्री ने प्रार्थना की कि- ‘‘हे प्रभु! मेरे राज्य में किसी के पास कभी भी धन (पैसों) की कमी न हो ताकि वो अपना जीवन अच्छे से जी सके।’’ दूसरे यात्री ने प्रार्थना की कि- ‘‘हे प्रभु! मेरे राज्य में कोई भी भूखा न रहे, इसलिए कृपा करना कि कभी भी अन्न एवं खाद्य पदार्थ की कमी न हो।’’ उन दोनों की बातों को सुनकर तीसरे ने प्रार्थना की कि- ‘‘हे प्रभु! हे ईश्वर! मेरे राज्य के लोगों के मन में हमेशा संतोष की वर्षा हो ताकि वो किसी भी परिस्थिति में अपना जीवन जी सके।’’ तीनों यात्रियों की प्रार्थना फली। कुछ वर्षों के पश्चात् संयोगवश उन्हीं तीनों यात्रियों को एक बार फिर से एक साथ यात्रा करने का अवसर मिला। दोबारा मिलने पर वे एक-दूसरे को पहचान भी गये। उनमें से दो यात्री (पहला व दूसरा) चेहरे से दुःखी नज़र आ रहे थे एवं तीसरे के चेहरे पर प्रसन्नता खिली हुई साफ़ दिखाई दे रही थी। अब आप समझ गये होंगे कि क्यों? क्यूँकि तीसरा यात्री संतोषी स्वभाव का था।
जिसके आगे किस्मत भी अपनी हार कबूल कर लेती है वो है- ‘‘संतोषी प्राणी’’। जो अल्प द्रव्यों एवं साधनों में भी अधिकतम संतोष का अनुभव कर सकता है, वो प्राणि ही इस दुनिया में असली अमीर है। संतोष दूसरों के जीवन से तुलना करने से नहीं, परन्तु स्व-जीवन में प्राप्त वस्तुओं को पर्याप्त मानने से उत्पन्न होता है। घर भले ही छोटा हो लेकिन हृदय (मन) बड़ा होना चाहिए। नीतिकार कहते हैं किः- 1. किसी सम्पन्न व्यक्ति से पूछों की उनके जीवन में संतोष कितना है? 2. अपार सामग्री/साधनों वालें से पूछों कि उनके जीवन में शांति कितनी हैं? एवं 3. अत्यधिक अनुकूलता वाले व्यक्ति से यह पूछों की क्या आप अपने जीवन से प्रसन्न हो?
जिस व्यक्ति के जीवन में लक्ष्मीजी की कृपा होती है फिर भी वह संतोष के अभाव में दुःखी रहता है। जबकि संतोषी स्वभाव के मनुष्य के हृदय की इच्छाएँ कभी भी अधूरी नहीं रहती। संपत्तिवान व्यक्ति भी संतोष के अभाव में भिखारी माना जाता है। जबकि निर्धन व्यक्ति के जीवन में संतोष है और पास में यदि कुछ भी न हो उसके बावजूद भी वह सुखी एवं समृद्ध माना जाता है। धन अथवा सम्पत्ति का अभाव या प्रभाव यह प्राणी के सुखी अथवा दुःखी होने का निर्णायक नहीं होता। संत भगवन्त अपने प्रवचनों के माध्यम से हमेशा यहीं बात कहते हैं कि- ‘‘ईश्वर को मण भर की सेवा नहीं, कण भर का संतोष पसन्द है। अर्थात् असली अमीरी तो जीव का संतोषी स्वभाव का होना ही है।’’ संसारी जीव को अपने स्वभाव को छिपाकर प्रभाव बताने में आनन्द मिलता है, वहीं संतोषी जीव प्रभाव बताने में नीरसता का अनुभव करता है।

— राजीव नेपालिया (माथुर)

राजीव नेपालिया

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