हम भी अकेले…
फूलों की रंग बिरंगी क्यारियां, मनभावन खुशबू उसे बहुत पसंद थी। भोर की मद्धम रोशनी, कलरव करते पंछी, रंग रंगीली तितलियां, खिलती कलियां देख मन प्रसन्न हो जाता। वह नन्हीं चिडिया के लिए दाना ले आती। अकेलेपन के साथी थे ये सब।
जब से राजीव चले गये, राधिका का जीवन उबाऊ हो गया था। बच्चे अपनी घर गृहस्थी में व्यस्त थे। एक खालीपन सा जीवन में आ गया था।
आज किसी काम की वजह से वह बाजार आयी थी।
” अरे राधिका,कैसी हो तुम?”
चौंक कर उसने देखा, बचपन की सहेली निर्मला थी।
” निम्मो, मेरी प्रिय सखी।”
” अभी-अभी,हम यहां आये हैं। रिटायरमेंट के बाद हमने प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर, गाँव की खुली, ताजी हवा, अपनेपन की महक का आनंद लेने, यहां रहने का मन बनाया हैं।”
” अपनी बता, कैसी हो?”
“राजीव नहीं रहे, मुझे पता है। लेकिन तुम्हें ऐसे मुरझाया देख क्या उन्हें अच्छा लगता होगा?”
“जीवन जीने के लिए है सखी।”
” चलो, कल पार्क में मिलते है।
सुबह की सैर साथ करेंगे।”
सखी निर्मला के साथ उनके संगी-साथी भी थे। हल्का-फुल्का हंसी-मजाक भी हो रहा था।
अब वह भी रोज आने लगी। पवन झरोखों संग मन भी उल्लसित होने लगा।
आज कल शर्मा जी के साथ बतियाते उसे आनंद आ रहा था।
दोनों ही अकेले थे।
सबके चले जाने के बाद दोनों सुख दुख की बातें करते।
अकेले वे भी थे, अकेली राधिका जी भी।
“क्यों न हम साथ चले?”
“क्यों न हम हमराह बने?”
दोनों ने प्यार से एक दूसरे का हाथ थाम लिया।
मुरझायी जीवन बाग में खुशी की बहार खिली हैं।