कैसी बेढब रीति चली है!
रौंदा अपने अधीनस्थ को
कैसी बेढब रीति चली है।
छोटी मछली को खा जातीं
बड़ी मछलियाँ बीन -बीन कर।
कुचले जाते नित गरीब ही
खा जाते हैं चुगा छीन हर।।
कैसे अपनी जान बचाएँ
देखो तो जन- जनी छली है।
सास बहू को नहीं समझती
पुत्रवधू भी बेटी जैसी।
निकल पड़ी कमियाँ ही खोजे
करती उसकी ऐसी – तैसी।।
मैं गृहस्वामिनि तू बाहर की
यही सोच घर देश-गली है।
हो विभाग सरकारी कोई
थाना या कि कोतवाली हो।
बूटों तले कुचलते छोटे
जैसे मच्छर की नाली हो।।
नाखूनों के बीच जुएँ – सी
नियति मानवों की छिछली है।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’