मन के भाव!
सूरज के तेजस घोड़े चले अंतरिक्ष के उस पार,
मन में उमड़ते-घूमड़ते भाव, खोले ग्रह-नक्षत्र द्वार!
परिंदों ने फैलाएं पँख, चले उतुंग गगन की ओर,
आमंत्रित करें खुशनुमा बयार छूने अन्तिम छोर!
मन के उमड़ते भावों की कैसे लूँ मनवा टोह?
कहीं विरह की पीड़ा, कहीं अपनों का मोह!
थक गई राधा कालिंदी तट वाट जोह जोह,
कहीं खींचे बांसुरी की धुन, कहीं प्रिय-बिछोह!
मन के जज़्बातों के सिक्के क्यों न गुल्लक में भर दू?
सिक्कों की खन-खन सुन क्यों न दिल तसल्ली से भर दूँ?
मयूरपँखी मनभावन पाँखों को क्यों न फैला दूँ?
खुशियों की फुहारों में नहा जीवन विशेष बना दूँ?
रंगबिरंगी भाव-पुष्प को रेशम धागों में गुंथ लूँ,
सपनों की सुन्दर माला पहन इतराऊ झूम लूँ!
मन में उमड़ते भावों को पढ़ गैरों के काम आ जाऊं,
उफ़नता दर्या हो या सरिता, गहरे पानी पैठ मोती लाऊं!
मन चंचल अंजनी पुत्र सा, भटके डार-डार!
मन के जीते जीत है, मन के हारे ही हार!
मनोभावों के चटक रंगों से फलक को मैं रंग दूँ!
कूँची से लिख दूँ मैं भारत, तिरंगा विश्व में लहरा दूँ!
— कुसुम अशोक सुराणा