आंखों का तारा
फुरसत के पलों में आलोक अपने पापा के साथ दुकान पर आ जाता।
साड़ी की छोटी सी दुकान, लेकिन वाजिब दाम, सुंदर वरायटी और मीठी बोली के कारण अच्छी कमाई हो जाती।
पापा प्रमोद जी और माता प्रभादेवी जी बढ़ती उम्र के कारण थक जाते।
आलोक अपनी पढ़ाई के साथ दुकान का कामकाज भी संभालने लगा था।
कला प्रेमी मन, कोमल हृदय था उसका।
पलभर में जान लेता अपने ग्राहक की पसंद।
ढूंढ निकालता पसंद की साडियां। एक के बदले तीन-चार साड़ी ले लेते ग्राहक।
बिक्री बढ़ गयी थी, लेकिन प्रमोद जी को महसूस हुआ, पैसे गिनते-गिनते आलोक का पढ़ाई से ध्यान हटने लगा है।
“प्रभा, क्या आलोक को भी साधारण दुकानदार बनाना है तुम्हें, जो उसे रोज दुकान भेज देती हो? ”
प्रमोद जी ने पुछा तो आंखें छलछला उठी प्रभादेवी की ।
” ओहो, लालचवश नीरे मूरख हो गयी मैं तो।”
” अभी से नोट गिनेगा, तो पढ़ने में मन कैसे लगेगा?”
“अजी सुनो, हम दोनों जितना हो सके, कर लेंगे।”
” उसे खूब पढायेंगे।”
राजा बेटा आज अपनी होशियारी से बड़ा अफसर बना है।
माता पिता की आंखों का तारा, ‘समाज भूषण’ बना है।
— चंचल जैन