गज़ल
रिश्ते अब खोखले लगने लगे
उनमें फ़ासले अब रहने लगे
मिली नहीं जब सुविधा उनको तो
तब खिलाफ़ विष वे उगलने लगे
मित्र की तरक्की को देखकर ही
थे जो विरोधी वे जलने लगे
अभिमान जिसने भी किया यारों
रावण कंस जैसे गिरने लगे
कभी बुलंदियों पर थे वे सारे
दिन उनके भी देख ढलने लगे
खोटे सिक्के थे वे कभी यहां
आज जरूरत हुई चलने लगे
गली नहीं दाल जब उनकी यहां
तब विद्रोह के स्वर उठने लगे
सच जब से सामने आने लगा
अपने बयान से बदलने लगे
फिर मांग न लें रमेश से उधार
इसलिए बचकर वे निकलने लगे
— रमेश मनोहरा