कविता

हकीकत का संसार

शायद हौसले और दिल बुजदिल होने को तैयार है,
मेरे सारे करीबी मिलकर रास्ते में कांटे बोने तैयार है।
कब,किसको,क्या मिलेगा मुकम्मल
शायद मेरी मौत पर सब रोने को तैयार है।
किसी का सही चेहरा देख नहीं पाता
लगता है मेरे चारों ओर ऐय्यार है।
सब मिलकर बिछा रहे कांटों की कालीन
शायद मेरी राहें अंधेरा होने को तैयार है।
जीवन का हर पल कुर्बान किया इनको
अब मेरा मुस्तकदिल पूरा शर्मशार है।
जीते जी देख चुका हूं दोज़ख
रूह असल दोजख देखने तैयार है।
खुशी लुटाये हैं सब आंखों में आंसू देकर
मेरी क़बर में सब मिट्टी गिराने बेक़रार है।
हाथों में रख कीलें संवारते मेरी पीठ
शायद मेरी नाव में नहीं पतवार है।
खा जाऊंगा तुम्हारी एक दिनी छुट्टी
मत कहना मरो मत आज इतवार है।
घुली हुई है फ़िज़ां में जहर चारों ओर
आज के हक़ीक़त का यहीं संसार है।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554