लघुकथा

संघर्ष

दाम्पत्य जीवन में सामंजस्य के अभाव में उपजी परिस्थितियों के चलते लीला को अपनी बच्ची के लिए घर छोड़कर निकलना पड़ा। बच्ची को साथ लेकर वह अपनी एक सहेली रमा के घर पहुंची, और अपनी पीड़ा कहते हुए रो पड़ी। रमा ने उसे ढांढस बंधाते हुए कहा कि जब तक उसके रहने का प्रबंध नहीं हो जाता तब तक वह यहीं रहे। उसने पति से कहा कि लीला के लिए काम का प्रयास करें।कई दिनों के प्रयासों के बाद रमा के पति के माध्यम से लीला को काम तो मिल गया। पति से बात करके रमा ने लीला को अपने ही घर में एक कमरा रहने के लिए दे दिया। लीला की बच्ची छोटी थी, इसलिए उसने ना नुकूर भी नहीं किया। वैसे भी अभी उसके हाथ में इतने पैसे भी नहीं है कि वो कहीं अलग कमरा लेकर रह सके। शुरुआती संघर्ष के बाद पढ़ी लिखी लीला के काम से उसके मालिक इतना प्रसन्न थे कि उसकी पगार बढ़ गई। उसका और उसकी बच्ची का निर्वाह अच्छे से होने लगा। उसने बेटी का एडमिशन करा दिया।अब लीला का एक अदद लक्ष्य बेटी का भविष्य था। एक दिन उसने रमा से कहीं अलग कमरा लेने की बात कही, तो रमा ने उसे समझाया, फिलहाल तो हमें तेरे रहने से हमें कोई असुविधा नहीं है, हां! तुझे हो रही हो तो और बात है। लेकिन तुम दोनों की सुरक्षा की खातिर मैं ऐसा नहीं चाहती। तुम्हारी बात ठीक है, लेकिन तुम दोनों ने जो मेरे संघर्ष के दिनों में मेरा साथ दिया, उसका एहसान मैं कभी नहीं भूल सकती। तभी रमा का पति आ गया, रमा ने अपने पति से पूरी बात बताई, तो उसके पति ने कहा – वैसे तो तुम स्वतंत्र हो, और मैं अधिकार पूर्वक तुमसे कुछ नहीं कह सकता, तुम रमा की सहेली हो, इसलिए नैतिक, मानवीय रूप से मैं अपने कर्तव्य का ईमानदारी से पालन करने की कोशिश जरूर कर रहा हूँ , लेकिन अब जब तुमने जाने का निर्णय कर ही लिया है, तब तुम्हें आश्वस्त करता हूँ कि जब भी हम दोनों की जरूरत हो, बेहिचक कह करना। विश्वास रखो कि तुम्हें निराश नहीं होना पड़ेगा।लीला हाथ जोड़कर रो पड़ी।

*सुधीर श्रीवास्तव

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