गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

नींद आंखों में नहीं थी कि कोई आएगा
नहीं मालूम था कि रस्म भर निभाएगा

वो चला जाएगा कुछ चहलकदमियां करके
फिर उसके बाद ये दिल खुद में डूब जाएगा

वो कह रहे तो चलो हम भी मान लेते हैं
ये राम राज्य कभी तो वतन में आएगा

जो कर रहे हैं मोहब्बत में आत्म हत्याएं
उनके जीवन में भला कब बसंत आएगा

जिनके होने से ही है लोकतंत्र में रौनक
उन्हीं को लोकतंत्र बे-तरह सताएगा

ये सियासत भी मुफ्तखोर बना देगी उसे
उसी के नाम पर परचम उठाया जाएगा

जो सो गया है सल्फास की गोली खाकर
उसे पता था ये जीवन कभी न गाएगा.

— ओम निश्चल