कविता

नन्हा पौधा

धीरे-धीरे, नन्हा पौधा बढ़ता जा, रहा था
पास खड़ा, वटवृक्ष अपनी पीठ, थपथपा रहा था ।

वृक्ष ख़ुश था, यह सोचकर मेरे सानिध्य में, पल रहा है
हवा के, थपेडों से ,पौधा बेतहाशा, लड़ रहा है ।

मेरी ही, जडों से यह सिंचित, हो रहा है
नित नयी, कपोलों से पल्लवित हो, रहा है ।

धीरे-धीरे , इस‌ पर भी खुमारी , छा जाएगी
इसके, आस-पास, फिर तितलियां, मंडराएंगी ।

यह भी, एक दिन, मेरे जैसा विशालकाय, बन जाएगा
देकर निर्बलों, को संरक्षण अपना कर्तव्य, निभायेगा।

मेरी तो, उम्र अब, पूरी हो चली है
इसके सामने, पूरी जिन्दगी पड़ी है
डर है घमंड से,यह चूर, न हो जाए
कहीं यह जड़ों से,‌ दूर न हो जाए।

फिर कौन इस,नन्हे की रक्षा करेगा
मनचले राहगीरों से, सुरक्षा करेगा
यही चिंता मुझे, हर पल सताती है
कभी तो सारी रात,नींद न आती है

नन्हा है कि, कुछ सुनने को तैयार नही है
उसको मेरी, सलाह की अब दरकार , नही है।

फिर भी, मैं तो, अपना कर्तव्य अवश्य ही, निभाऊं गा
वह माने, या न माने खतरे का बोध, तो कराऊंगा।

अब प्रभु आप ही, इसे संभालिए
जैसे आप चाहिए, वैसे ही पालिए
इसे हर मुसीबत से, बचाए रखना
अपना रहमो-करम,बनाए रखना।

इसे हर मुसीबत से, बचाए रखना
अपना रहमो-करम,बनाए रखना।

— नवल अग्रवाल

नवल किशोर अग्रवाल

इलाहाबाद बैंक से अवकाश प्राप्त पलावा, मुम्बई