ग़ज़ल
अस्सी करोड़ को जो राशन दिला रहे हो।
इस देश को कसम से भिक्षुक बना रहे हो।
कितने करोड़ लोगों की मुफलिसी मिटी है,
गिनती नहीं हुई तो कैसे बता रहे हो?
दो-चार साल की कुछ बातें नहीं बताते,
पच्चीस साल वाले सपने दिखा रहे हो।
इस सृष्टि में निरंतर बदलाव ही नियम है,
बदलाव के नियम की खिल्ली उड़ा रहे हो।
पचहत्तरी हुए हो, थकते नहीं कभी तुम,
पूरा शतक करोगे, खुलकर जता रहे हो।
— बृज राज किशोर ‘राहगीर’