लघुकथा

भूख का कर्ज

आफिस से कमरे पर जाते हुए रास्ते में पड़ने वाले मंदिर के बाहर छोटे छोटे बच्चों को प्रसाद मांगकर खाते देख दिनेश उन बच्चों के भविष्य के बारे में सोचता रहता था, लेकिन वो समझ नहीं पा रहा था कि आखिर वो करे भी तो क्या और कैसे? इसी उधेड़बुन में इस रविवार उसने मंदिर के पुजारी से मिलकर उन बच्चों के बारे में बात की और कहा कि वो इन बच्चों के लिए कुछ करना चाहता है। लेकिन व्यवस्था करना उसके वश में नहीं है, क्योंकि इस शहर में वह नौकरी करता है और यहाँ अकेला रहता है, उसके आफिस के लोगों के अलावा यहां उसे कोई जानता पहचानता भी नहीं है। पुजारी जी ने उसकी प्रशंसा करते हुए पूछा – तुम बताओ कि मैं इसमें क्या मदद कर सकता हूँ? तब दिनेश ने कहा – इन बच्चों के माता पिता को बुलाकर आप बात कीजिए कि इनके पढ़ने और भोजन का प्रबंध मंदिर की तरफ से किया जा सकता है। बशर्ते वे अपने बच्चों को स्कूल भेजने को तैयार हों। पुजारी जी ने बीच में टोका- लेकिन मंदिर यह जिम्मेदारी नहीं उठा सकता।दिनेश ने कहा- मैं जानता हूँ । मैं बस इतना चाहता हूँ किव्यवस्था की जिम्मेदारी आप अपने ऊपर ले लीजिए, जो भी खर्च होगा उसकी जिम्मेदारी मेरी होगी, लेकिन नाम नहीं। आपका आशीर्वाद होगा तो इन बच्चों का भविष्य संवर जाएगा। लेकिन तुम ये सब आखिर करना क्यों चाहते हो? और इसके लिए मुझे ही माध्यम बनाने का कारण? क्योंकि मैंने भूख को झेला है, और मुझे लगता है कि मुझ पर भूख का कर्ज है, जिसे उतारने की दिशा में मैं यथा संभव कुछ न कुछ जरूर करना चाहता हूँ। अब इसे ईश्वरीय व्यवस्था कहें या कुछ और। लेकिन मेरे मोहल्ले के मंदिर के पुजारी जी ने मुझे अपने पास रख कर पढ़ाया लिखाया और आज मैं इस काबिल हो पाया कि मैं इन बच्चों के लिए कुछ कर सकूं, अन्यथा आज भी मैं शायद भीख ही ।मांग रहा होता। जाने कौन सी शक्ति है जो मुझे आप पर भरोसा करने के लिए प्रेरित कर रही है। बच्चों के माता पिता भी आप पर आसानी से विश्वास कर लेंगे, जो शायद मुझ पर नहीं कर सकेंगे। वैसे भी यदि आप मन बना लेंगे तो सब कुछ आसानी से कर सकते हैं। काफी सोच विचार के बाद पुजारी जी ने दिनेश के जज्बे को देखते हुए सहमति दे दी। काफी देर तक विचार विमर्श के बाद पुजारी जी के चरणों में दिनेश ने सिर झुकाया और जाने की अनुमति मांगी। पुजारी जी ने प्रसाद और आशीर्वाद देकर दिनेश को जाने की अनुमति दे दी। मंदिर से निकलते हुए दिनेश बहुत हल्का महसूस कर रहा था और बहुत खुश भी।

*सुधीर श्रीवास्तव

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