कविता

खुशबू कितना बाकी है

हां मुझे भी अंदेशा होने लगा है कि
अब वो खुशबू नहीं
मुझमें या मेरे किरदार में,
अब कोई रह नहीं सकता मेरे इंतजार में,
बची नहीं या कहें कि कभी दिखता नहीं
अब वो ललक
जो होता था पहले रूठने या तकरार में,
मैं स्वयं अपने पसीने की महक से
पहले रहता था परेशान,
जरूरतें पता थी नहीं था नादान,
किताबें तो पढ़ी थी
मैंने बहुत सारे,
पर हकीकत ने दिखाये
असल खुशबू असल नजारे,
तब वहीं पसीने की महक
सबको अच्छा लगता था,
सबके जीने की उम्मीदें जगता था,
खैर समय सब कुछ तय करता है कि
किससे कैसे संबंध रखा जाये,
किसे प्यार से और किसे दुत्कार से बुलाएं,
गर्मजोशी सदा बना नहीं रहता,
एक मां को बेटा कहने में,
पत्नी के हंस कर बोलने में,
बच्चों को पापा कहने में,
भाई को भाई कहने में,
हां अब उड़ चले खुशबू
कहीं और अलहदा रिश्तों की ओर।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554