कविता

छांव मिले न उधार

तप रही है धरा, सूरज अगन लगाए,
सोए बैरी बदरवा, उनको कौन जगाए!
पानी-पानी पंछी पुकारें, सुन ले उनकी गुहार,
ये मन मांगे; सावन की फुहार।

जेठ माह में नौतपा, उग्र रूप दिखाए,
इतना तपाना ठीक नहीं, कोई उसको सिखाए,
आतप से आतप्त है आतप, अब तो होवे जुहार,
ये मन मांगे; सावन की फुहार।

इतनी उग्रता कैसे सहेंगे, ग्रीष्म ये तो सोच,
पंख-पखेरू तक कहें, आई अक्ल पर मोच!
सूरज बना हथौड़ा, चंदा बना लुहार,
ये मन मांगे; सावन की फुहार।

जंगल हैं कंकरीट के, शहर बने हैं गांव,
पेड़ काटने आए जो, मांग रहे हैं छांव,
आतप मुफ्त में मिल रहा, छांव मिले न उधार,
ये मन मांगे; सावन की फुहार।

— लीला तिवानी

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244