छांव मिले न उधार
तप रही है धरा, सूरज अगन लगाए,
सोए बैरी बदरवा, उनको कौन जगाए!
पानी-पानी पंछी पुकारें, सुन ले उनकी गुहार,
ये मन मांगे; सावन की फुहार।
जेठ माह में नौतपा, उग्र रूप दिखाए,
इतना तपाना ठीक नहीं, कोई उसको सिखाए,
आतप से आतप्त है आतप, अब तो होवे जुहार,
ये मन मांगे; सावन की फुहार।
इतनी उग्रता कैसे सहेंगे, ग्रीष्म ये तो सोच,
पंख-पखेरू तक कहें, आई अक्ल पर मोच!
सूरज बना हथौड़ा, चंदा बना लुहार,
ये मन मांगे; सावन की फुहार।
जंगल हैं कंकरीट के, शहर बने हैं गांव,
पेड़ काटने आए जो, मांग रहे हैं छांव,
आतप मुफ्त में मिल रहा, छांव मिले न उधार,
ये मन मांगे; सावन की फुहार।
— लीला तिवानी