कविता

दुःखदायी पराकाष्ठा

दीमक खाए काष्ठ की तरह होती है पराकाष्ठा,
जीवन को नष्ट-भ्रष्ट कर देती है पराकाष्ठा,
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
सब कुछ नष्ट कर देती है स्वार्थ की पराकाष्ठा।

जीना मुश्किल कर देती जनसंख्या की पराकाष्ठा,
दुःखदायी बाढ़ ला देती है अति वर्षा की पराकाष्ठा,
बारिश बिलकुल न हो तो होती है सूखे की समस्या,
जीना दूभर कर देती अति शीत-आतप की पराकाष्ठा।

मन को आशंकित कर देती है सुख की पराकाष्ठा,
बेबस-लाचार कर देती है अति दुःख की पराकाष्ठा,
पराकाष्ठा हो जिम्मेदारी की तो जीवन हो जाता भार,
सब कुछ उड़ा ले जाती आंधी-तूफान की पराकाष्ठा।

अति दुःखदायी होती लगाव-मोह-लोभ की पराकाष्ठा,
जीवन जला देती क्रोध-ईर्ष्या की अगन की पराकाष्ठा,
अति दुराव से भी उत्पन्न होती हैं बहुत-सी गलतफहमियां,
गति विहीन कर देती हार से उत्पन्न वैराग की पराकाष्ठा।

— लीला तिवानी

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

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