दुःखदायी पराकाष्ठा
दीमक खाए काष्ठ की तरह होती है पराकाष्ठा,
जीवन को नष्ट-भ्रष्ट कर देती है पराकाष्ठा,
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
सब कुछ नष्ट कर देती है स्वार्थ की पराकाष्ठा।
जीना मुश्किल कर देती जनसंख्या की पराकाष्ठा,
दुःखदायी बाढ़ ला देती है अति वर्षा की पराकाष्ठा,
बारिश बिलकुल न हो तो होती है सूखे की समस्या,
जीना दूभर कर देती अति शीत-आतप की पराकाष्ठा।
मन को आशंकित कर देती है सुख की पराकाष्ठा,
बेबस-लाचार कर देती है अति दुःख की पराकाष्ठा,
पराकाष्ठा हो जिम्मेदारी की तो जीवन हो जाता भार,
सब कुछ उड़ा ले जाती आंधी-तूफान की पराकाष्ठा।
अति दुःखदायी होती लगाव-मोह-लोभ की पराकाष्ठा,
जीवन जला देती क्रोध-ईर्ष्या की अगन की पराकाष्ठा,
अति दुराव से भी उत्पन्न होती हैं बहुत-सी गलतफहमियां,
गति विहीन कर देती हार से उत्पन्न वैराग की पराकाष्ठा।
— लीला तिवानी