कविता

सब पैसों का खेल

मन में तेरे मैल भरा, कर ले इसको साफ
कुर्सी पर भी बैठ कर, नहीं होगा इंसाफ।

कैसा समय अब आ गया कैसा हुआ व्यवहार
भूल जाता मां बहन को सुंदर दिखी जो नार।

नर और पशु समान है रिश्तों को जाए जो भूल
संस्कार भी भूल गए अब रहे न कोई उसूल।

दिन रात जो करते थे मन से डट कर काम
फ्री की आदत पड़ गई अब करते हैं आराम।

संस्कार सब भूल गए भूले इज़्ज़त मान
भीड़ बहुत हो गई शहर में गांव पड़े वीरान।

बड़े बुजुर्गों माता पिता का रहा न इज़्ज़त मान
ऐसी शिक्षा और संस्कार नहीं किसी के काम।

सत्ता के पीछे फिरें करते सब गुणगान
सत्ता के जाने के बाद बनते सब अनजान।

दिल में बेईमानी भरी कपट भरा है मन
काला मन है छुपा हुआ बाहर उजला तन।

कपड़े उजले पहन लिए मन से गई न मैल
रिश्ते नाते सब भूल गया पैसे का है खेल

— रवींद्र कुमार शर्मा

*रवींद्र कुमार शर्मा

घुमारवीं जिला बिलासपुर हि प्र