कविता

बोझ

लगने लगा हूं मैं खुद के लिए बोझ,
शायद नहीं रही मेरी बातें सीधी व सोझ,
अब तो अपनी नजर में भी
खटकने लगा हूं,
अपने ही बनाये
जालीदार गलियों में भटकने लगा हूं,
पता नहीं ये कैसा संकेत है,
झंझट से मुक्ति का प्राकृतिक आदेश है?
उलझन में डोल रहा हूं
पता नहीं किस साहस से बोल रहा हूं,
महसूस हो रहा कि इज्जत खाक है,
संदेशा बिल्कुल साफ है,
कि डूबते सूरज का अर्घ्य हूं,
अपनों के लिए तथाकथित नर्क हूं,
बता स्थिति कौन संभालेगा,
मनुवादी चक्रव्यूह से कौन निकालेगा,
ये बच्चों का खेल नहीं है,
ये कुरीतियों पर नकेल नहीं है,
कमाऊ व्यक्ति घर के लिए एक खोज है,
यदि अपनेआप कुछ करे तो वो बोझ है।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554

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