लघुकथा

कर्ज का रिश्ता

अचानक आधी रात को मेरी नींद उचट गई। सोने का हर प्रयास असफल हो गया। तब मैं उठकर बैठ गया।

     सोचने लगा कि ऐसा क्यों है? काफी देर तक ऊहापोह की हालत में रहा।

    फिर ऐसा लगा जैसे कोई मुझसे कह रहा है कि जब तक मेरा क़र्ज़ नहीं चुकाओगे।तब तक ऐसा ही होता रहेगा।

   अब मैं सोचने लगा। कौन सा क़र्ज़ किसका क़र्ज़ कैसा क़र्ज़? फिर एक धुंधला सा चेहरा मेरी आंखों के सामने घूम गया।

     फिर मैं असमंजस की हालत में याद करने की कोशिश करता हूँ कि आखिर ये है कौन? और इससे मेरा रिश्ता क्या है? जो मैं इसका कर्जदार हो गया।

    एक बार फिर वही चेहरा सामने आया। रिश्तों का तो पता नहीं, पर कुछ तो ऐसा हमारे बीच जरुर है, शायद क़र्ज़ का ही रिश्ता है। जिसे अब तुम्हें उतारना  ही होगा। बस? शायद हम कभी आमने सामने हुए हों या आगे होंगे। लेकिन ये क़र्ज़ किस जन्म का है मुझे भी नहीं पता।

ले.. ले..किन……..!

      लेकिन वेकिन का तो नहीं पता, बस इतना जरूर है कि हम दोनों का आपस में गहरा और पवित्र रिश्ता है। बड़ी मुश्किल से मैं तुम्हें खोज पाई हूँ। खुश रहो और चिंता मत करो, इसी जन्म में तुम मेरे क़र्ज़ से मुक्त हो जाओगे। बस एक आग्रह है कि क़र्ज़ उतारने के बाद भी मुझे भूल मत जाना। क्योंकि तुममें मुझे अपना पिता, भाई, बेटा दिखता है।

     मुझे क्षमा करो और सो जाओ। तुम्हें नींद आ रही होगी। मुझे भी जाना होगा।

        इतना कहकर वो धुंधला चेहरा गायब हो गया और मुझे भी नींद का अहसास होने लगा।

*सुधीर श्रीवास्तव

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