कविता

मेरे बाद की पीढ़ी

कभी गिलहरी सी शर्मिली
कभी शेरनी सी स्वच्छंद
अंगड़ाई लेती मोरनी सी
मेरी ख़्वाहिशों की परछाई
इत्र की शीशी सी महकती
कभी गीली दूब तो कभी
मोगरे की महक सी
कभी खीर सी मीठी तो कभी
कुरकुरे सी लज़्ज़तदार
तितली सी तुफ़ानी
शमशीर की धार सी
लहरों सी वेगवान
कभी तड़ित सी तिव्र
तो कभी लहरों के निनाद सी
कभी सीता सी सौम्य तो कभी
सती के बल सी तेज़ तर्रार
कभी झील सी गहरी
तो कभी सरिता सी वेगवान
कभी तुलसी सी पावन
तो कभी मय सी नशीली
उर्जा के उत्सव सी
नूर की बूंद सी
साकित हरगिज़ नहीं
शुआओं सी झिलमिलाती
मेरे अधूरे सपनों का पर्याय
मुझे लगती है
मेरे बाद की पीढ़ी
जिसकी मुखर हंसी में
दिखता है मुझे
हर स्त्री की कल्पनाओं में बसा
अपनी सियासत का संसार
जिसे सदियों से मैं ढूंढ़ते थकी।

— भावना ठाकर

*भावना ठाकर

बेंगलोर

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