कुण्डली/छंद

वन गमन (तंत्री छंद)

जनक दुलारी, हे सुकुमारी,
कैसे तुम,वन को जाओगी।
पंथ कटीले,अहि जहरीले,
कैसे तुम,रैन बिताओगी।।
सुन प्रिय सीते, हे मनमीते,
आप वहाँ,रह ना पाओगी।
विटप सघन है,दुलभ अशन है,
कष्ट सिया, सह ना पाओगी।।

हे रघुनंदन,करती वंदन,
आप बिना,रह ना पाऊँगी।
स्वर्ग वहाँ है, नाथ जहाँ हैं,
चरणों में, शीश झुकाऊँगी।।
मानो कहना,ना मत कहना,
आप संग,वन में जाऊंगी।
चाहे सुख हो,या फिर दुख हो,
मैं हरपल,साथ निभाऊंगी।।

— कुमकुम कुमारी “काव्याकृति”

कुमकुम कुमारी "काव्याकृति"

मुंगेर, बिहार