कविता

चाहते मिलना कोई हैं हमसे!

चाहते मिलना कोई हैं हमसे,
चाहतें कितनी दिल रखे वे हैं;
शर्तें कितनी संजोए राखे हैं,
रिश्ते कितने बनाना चाहे हैं!

साफ़ ना मन है ख्वाहिशें कितनी,
सिफ़र ना रूह अभी व्यापी है;
तमन्ना कितनी शून्य भाया ना,
उन्मना रहे राह काटी है!

तलाश मेरी ज़िगर उनके की,
अथाह उर की नज्म सुननी है;
कहाँ कुछ लेना कहाँ कुछ है देना,
डुबा अपने में उनको लेना है!

डूबना चाहता हूँ उनके सुर,
नहीं शब्दों में मैं उलझता हूँ;
समुंदर जब नहीं है उनके अहं,
महत में विचर नहीं पाता हूँ!

देखते ऋद्धि सिद्धि जो मेरी,
प्रकृति प्रभु की रही वो उपजाई;
कहाँ कुछ ‘मधु’ का मात्र है उनका,
तकल्लुफ़ क्यों रहे वे पाले हैं!

— गोपाल बघेल ‘मधु’