कविता

बात वे मुझसे नहीं कर पाते!

बात वे मुझसे नहीं कर पाते,
प्रतीक्षा मेरी हैं किया करते;
बात करनी है लिखते हैं रहते,
फ़ोन पर उठा बात ना करते!

कल्पना अपनी वे रहे आते,
व्यस्त अपने में हैं रहे आते;
समय ना होगा हम पै सोचें वे,
ख़ाली हम हर घड़ी हैं पर होते!

समर्पित हो गए हैं हम जब से,
बने चाकर हैं घूमते उनके;
काम बहुतेरे फिर भी फ़ुरसत है,
पुकारे कोई उनको जाते हैं!

दूर जो उनसे रहे आते हैं,
बुला हमको कहाँ वे पाते हैं;
हुक्म उनके से दौड़ हम पाते,
कहाँ अपनी चला हैं हम पाते!

नौकरी उनकी टोकरी उनकी,
ठीकरी उनकी ठाकुरी उनकी;
‘मधु’ कब अपने वश रहे होते,
जो भी वे कहते वही हैं करते!

— गोपाल बघेल ‘मधु’

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