भाव-मग्नता
एक मंदिर में सब लोग पगार पर काम करते थे, घंटा बजाने वाला भी पगार पर था.
घंटा बजाने वाला आदमी आरती के समय इतने भाव के साथ इतना मशगूल हो जाता था कि होश में ही नहीं रहता था, आरती में आने वाले भक्तगण भी भाव-मग्न हो जाते थे.
अनपढ़ होने के कारण एक दिन उसकी छुट्टी कर दी गई. अब आरती में भाव-मग्नता भी लापता हो गई.
कुछ लोग मिलकर घंटा बजाने वाले व्यक्ति के घर गए और विनती की “तुम मंदिर आया करो.”
उसने जवाब दिया, “मैं आऊंगा तो ट्रस्टी को लगेगा नौकरी लेने के लिए आया है.”
लोगों ने एक उपाय बताया कि “मंदिर के बराबर सामने आपके लिए एक दुकान खोल देते हैं, वहां आपको बैठना है और आरती के समय बजाने आ जाना, फिर कोई नहीं कहेगा तुमको नौकरी की जरूरत है.”
तथाकथित अनपढ़ ने मंदिर के सामने दुकान शुरू की और रोज घंटा बजाने आने लगा. स्वभाव की भाव-मग्नता यहां भी काम आई. एक दुकान से सात दुकान और सात दुकान से एक फैक्ट्री खोली. अब वह मर्सिडीज से घंटा बजाने आता था.
भक्तों के साथ भाव-मग्नता भी भाव-मग्न थी.
— लीला तिवानी